जब मैं रो पड़ा… Read Hindi motivational and inspirational success story of a father who planned diligently for his dream to get his son admitted in in IIT Kharagpur.
मेरा पुत्र चन्द्रकान्त,अपने भाईयों में चौथा. धनबाद पब्लिक स्कूल का छात्र था . आठवीं की परीक्षा दे चूका था. पढने- लिखने में अब्बल था. मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास था कि वह कुछ न कुछ विशेष करेगा जीवन में. मेरी दिली ईच्छा थी कि इसका दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल में हो जाय. उस वक़्त दिल्ली पब्लिक स्कूल धनबाद में एक नंबर पर था – पढ़ाई – लिखाई के मामले में.
कर्नल शर्मा प्रिंसिपल थे. वे विधार्थियों के बौद्धिक विकास के लिए अथक परिश्रम करते थे और शिक्षकों से भी करवाते थे. चूँकि वे सेना से आये थे, उनके रग- रग में अनुशासन समाया हुआ था. वे गलती होने पर किसी को नहीं बखश्ते थे. क्लास खाली जाना उन्हें बिलकुल बर्दास्त नहीं होता था. ऐसे नियम बना डाले थे कि अनुपस्थित होने से पूर्व शिक्षकों को सूचित करना पड़ता था ताकि समय रहते कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके. बच्चो एवं अभिभावकों के प्रति भी उनका रुख नरम नहीं रहता था. वे नवीं से बारहवीं तक के बच्चों पर विशेष ध्यान दिया करते थे .
मेरे दो लड़के रमाकांत और शिवाकांत इसी स्कूल के क्षात्र थे, इसलिए मेरा इनसे किसी न किसी बात को लेकर मिलना –जुलना होता रहता था. कर्नल शर्मा को नजदीक से जानने का अवसर मुझे मिलता रहता था. आई.आई.टी. एन.आई.टी. ,ट्रिपल आई.टी. मेडिकल, एन.डी.ए. आदि में डी.पी.एस. के छात्र हर साल सेलेक्ट होते थे. फलतः सभी अभिभावक इसी ताक में रहते थे कि उनके बच्चे का एड्मिसन इस स्कूल में हो जाय . मैं भी चाहता था कि मेरा लड़का चंद्रकांत , जो धनबाद पब्लिक स्कूल में आठवीं वर्ग में पढता था ,का एड्मिसन दिल्ली पब्लिक स्कूल में हो जाय.
एड्मिसन के लिए टेस्ट देना पड़ता था. मैं पांचवीं क्लास से ही उसे टेस्ट दिलाते आ रहा था, लेकिन दुर्भाग्य से मेरा लड़का कुछेक अंक कम लाने से पिछड़ जाता था. मैं हार मानने वाला नहीं था. मेरे तीन बच्चे स्कूल में आलरेडी पढ़ रहे थे . यह मेरा चौथा लड़का था जिसे मैं डीपीस में पढ़ाना चाहता था. लेकिन यह तभी संभव था जब वह खाली सीटों में एड्मिसन के लिए उपयुक्त अंक लाये. मैंने उसकी तैयारी जम कर करवाई. जब उसने टेस्ट देकर आया तो मैं आश्वस्त हो गया कि इस बार इसका एड्मिसन अवश्य हो जाएगा.
रेजल्ट के दिन हम दोनों बाप-बेटे स्कूल गये तो यह देख कर खुशी का ठिकाना न रहा कि एड्मिसन के लिए चंद्रकांत चुन लिया गया है. हम सारी व्यवस्था करके ओपन हार्ट सर्जरी के लिए तीस मार्च २००२ को पुणे के लिए प्रस्थान कर गये . पत्नी के पास दो चेक हस्ताक्षर कर रख दिए ताकि वह अप्रेल में रिंकू का एड्मिसन साथ में उमेश ( अयोध्या बाबू का पुत्र ) को भेजकर जरूर करवा दे.
मेरा चार अप्रेल को सी ए बी जी ( क्रोनरी आर्टरी बाईपास ग्राफ्टिंग ) के लिए रूबी हॉल क्लिनिक ,पुणे में एड्मिसन हो गया. साथ में शिव शंकर बाबू, उनकी धर्मपत्नी मालती , उनका पुत्र अजय भी देख – रेख के लिए मेरे साथ आये थे. ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि ओप्रेसन के बाद महीना दो महीना अच्छी तरह से देख – भाल हो सके. विश्रांतबाडी में श्रीकान्त का क्वार्टर था जहाँ मुझे दो महीने बिताने थे . डॉक्टर पी.के.ग्रांट , कार्डियोलोजिस्ट एवं डॉक्टर मनोज प्रधान , हार्ट सर्जन की देख – रेख में मेरा ओप्रेसन होना तय हो गया . ६ अप्रेल को पूरी टीम से मेरा परिचय करवाया गया.
८ अप्रेल को ठीक सुबह सात बजे मुझे ओ. टी. ले जाया गया. टेन डेज का पैकेज था. मेरे ओप्रेसन में पूरी टीम दिल से लगी हुयी थी. इसकी वजह थी कि मैं ने अपने व्यवहार एवं आचरण से सब का दिल जीत लिया था. डॉक्टर ग्रांट एवं डॉक्टर मनोज प्रधान मुझे बहुत प्यार करते थे. सन्डे ऑफ़ के बाद सोमबार को मेरा ओप्रेसन का दिन निर्धारित किया गया था ताकि लोग फ्रेश मूड में मेरा ओप्रेसन में लगे तथा इसे सफल बनाये . हकीक़त यह थी कि मेरा ओप्रेसन मंगलवार को फिक्स्ड किया गया था. मुझे वहां के एटेंडिंग नर्स से पता चला कि सोमवार को ओप्रेसन बहुत ही कुशलतापूर्वक होता है.
मैं डाक्टर पी.के.ग्रांट जो रूबी हॉल क्लिनिक के हेड थे, से मिला और मेरा ओप्रेसन मंगलवार की जगह सोमवार को फिक्सड करने के लिए रिक्वेस्ट किया यदि वे सचमुच में मुझे प्यार करते हैं. इस बात का जिक्र उन्होंने मेरे समक्ष मेरे बोस डाक्टर ए.एम.राय के सामने टेलीफोन पर कह चूका था. डाक्टर ग्रांट के लिए अपनी बात से मुकरना बहुत ही कठिन था. दूसरी ओर मैं सोमवार के ओप्रेसन के लिए अड़ा हुआ था. उसने तत्काल अपनी सेक्रेटरी को बुलाया और जिस व्यक्ति का ओप्रेसन सोमवार को होना था ,उसे मंगलवार को शिफ्ट कर दिया और मुझे उसकी जगह सोमवार को. मेरी जिद के आगे डाक्टर ग्रांट को वही करना पडा जो मैंने चाहा.
वे मुझे घूर-घूर कर देख रहे थे जब मैं उनकी चेंबर से बाहर निकल रहा था. वे हैरान थे इस बात से कि मैंने हॉस्पिटल की अंदरूनी बातों का पता कैसे लगा लिया. आखिरकार मेरा ओप्रेसन सोमवार को ही बड़ा ही जोली मूड में सम्पन्न हुआ. चार-पांच दिनों के बाद ही मैं चलने – फिरने लगा. लिफ्ट से ( थर्ड फ्लोर ) से मैं ग्राउंड फ्लोर चला जाता था और सभी कर्मचारियों से मिलता – जुलता था तथा तरह-तरह की सूचना इकठ्ठा करता था.
मैंने डॉक्टर बी. के. ग्रांट डॉक्टर पी.के. ग्रांट के फादर तथा Founder Of Ruby Hall Clinic से भी इसी दौरान मिला. मेरे लिए यह एक यादगार क्षण था. साथ में फोटो भी खिंचवाए. उम्र उनकी अस्सी से ऊपर ही होगी. रोज हॉस्पिटल आते थे और रोगियों को मन से देखते थे. एक दिन तो ऐसा हुआ कि मैं नीचे आवारा मसीहा की तरह घूम रहा था कि मुझे डॉक्टर प्रधान आमने सामने मिल गये. फिर क्या था मुझे डांटने लगे , पकड़ कर थर्ड फ्लोर मेरे केबिन तक ले आये और नर्स को हिदायत कर दी कि मुझे किसी भी कीमत पर रूम से बाहर न जाने दिया जाय.
वे तो इस प्रकार घूमते देखकर दंग रह गये . अभी पांच ही दिन हुए हैं और घुमने फिरने लगे. कुछ हो जाता तो ? उन्होंने प्रश्न कर दिया. कान पकड़ता हूँ कि अब मैं कभी नीचे जाऊं. मैंने कान पकड़ते हुए उन्हें यकीन दिलाया वे हमेशा सिरीअस रहते थे. इसकी वजह उनकी असीमित जिम्मेदारियां थीं. उनके पास ओप्रेसन के लिए दूर-दूर से लोग बड़ी उम्मीद के साथ आया करते थे और उन्हें उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना पड़ता था. उनकी हंसीं सायद किसी ने न देखी हो , लेकिन मैं किसी न किसी उल्टी – सीधी बातों से हंसा दिया करता था. मैं ऐसा क्यों करता था , मुझे खुद को पता नहीं था. लेकिन एक बात दिगर है कि मुझे डाक्टर प्रधान को हँसते हुए देखना बड़ा अच्छा लगता था. वे काफी तनाव में रहते थे और मुझे इससे उन्हें उबारना था भले ही चाँद मिनटों के लिए ही क्यों न हो.
उनका स्वाभाव इतना मृदुल था कि मुझे ताज्जुब होता था कि इंसान है या इंसान के रूप में देवता. एम.एस. करने के पश्च्यात एम.सी.एच. उसने किया था . कुछेक वर्ष लन्दन में अध्यापन का कार्य करने के बाद पुणे में सेटल हो गये थे. बड़े ही तन-मन से अपने पेशेंट को देखते थे तथा उचित सलाह दिया करते थे. मैं कभी – कभी बड़ी ही बेतुकी सवाल कर डालता था . ऐसे प्रश्नों से भी वे विचलित नहीं होते थे . बड़े ही शांत चित से जवाब देते थे. मेरा जब बाई पास सर्जरी हो गया और मैंने सारे परामर्श पढ़ लिए तो उनसे अचानक प्रश्न कर डाले, सर ! आपने मेरे हाथ से एवं इन्टरनल मेमोरी आर्टरी से नस निकाल कर हार्ट-आर्टरी में जोड़ दिया है, कभी जोड़ खुल जाये तो क्या होगा ? मेरा प्रश्न सुनकर वे हक्का-बक्का रह गये. कुछेक पल तो चुप रहे फिर बोले , ‘ माएक्रो सीविंग किया जाता है , मिस्टर प्रसाद. लेप्सेस की कोई चांसेस नहीं छोडी जाती. आप इत्मिनान रहिये , ऐसा कुछ नहीं होगा . यू विल लिव अ लॉन्ग लाइफ . ’ वे जो भी बात बोलते थे , नपे – तुले होते थे तथा उन बातों पर आँख मूंदकर विश्वास किया जा सकता था. मैं दस वर्षों तक उनके पास री-चेकअप के लिए गया . वही विनम्रता की प्रतिमूर्ति. वही सागर सी गंभीरता. आकाश सा विस्तृत ज्ञान , अपने विचार में पृथ्वी सा अटल , मेरे स्वास्थ एवं रिकोवरी के प्रोग्रेस को देखते हुए मुझे १८ तारिख की जगह १४ को ही डिस्चार्ज कर दिया गया. साथ में शिव शंकर बाबू एवं श्रीकांत थे. खुशी-खुशी हमलोग क्वार्टर में चले आये. श्रीकांत समझदार था. उसने घर पर फोन लगाकर चोंगा मुझे थमाते हुए बोला , माँ है , बात कीजिये. सबसे पहले जो बात मैंने पूछी वह थी, “ क्या रिंकू का एड्मिसन हो गया ?’’ उधर से जबाव आया , “ हाँ , हो गया . ’’ मेरे मन में जो सबसे अहम् बात थी वह थी टिंकू का डी.पी.एस. में दाखिला. फिर बताया कि मेरा ओप्रेसन बहुत अच्छी तरह से हुआ. मेरे लिए रिंकू का एड्मिसन कितना महत्वपूर्ण था , यह बताया नहीं जा सकता , केवल एहसास किया जा सकता था. मेरे तीनो लड़के डी.पी.एस. में थे – बबलू, लल्ला और टिंकू. और रिंकू की भी दिली खवाहिश थी कि वह भी वहीं पढ़े. तीन बार प्रयास किया जा चुका था. नवीं क्लास में दाखिला हो जाने से रिंकू के लिए सब कुछ जानने – सुनने का पर्याप्त समय मिल गया था. मैं डेढ़ महीने रेस्ट करने के बाद १६ मई २००२ को घर लौट आया. घर पर भी मैंने दो महीने तक रेस्ट किया और जुलाई के प्रथम सप्ताह में डियूटी जोएन कर ली. रिंकू पूरे मन से पढ़ाई – लिखाई की. चार साल पढने के बाद कोचिंग के लिए पुणे चला गया. जून में घर चला आया. जिस दिन आई.आई.टी. इंट्रेंस का रिजल्ट निकलने वाला था , हम उसे पास के एक साइबर कैफ में ले गये. उसने ज्योंहि अपना नाम और रोल नंबर डाला , २९६१ आल इंडिया रैंक आ गया. हम खुशी से पागल हो गये . टिंकू का कठोर परिश्रम, लगन एवं आत्मविश्वास का ही परिणाम था कि वह विषम परिस्तिथिओं में भी आई.आई.टी. में चुन लिया गया. चूंकि उसने पुणे से परीक्षा दी थी , इसलिए कौन्सिलिंग के लिए बोम्बे आई.आई.टी. में बुलाया गया था. हम खुशी-खुशी जाने की तैयारी में जूट गये.
उस रात हम बिलकुल सोये नहीं . साईं बाबा को मैं याद करता रहा जिनके आशीर्वाद से यह चमत्कार हुआ. मैं साईं बाबा के दर्शनार्थ शिर्डी गया था . मेरा बड़ा लड़का श्रीकांत १९९४ में I.I.T. कम्पीट कर लिया था और मेरी दिली ईच्छा थी कि मेरा एक लड़का और आई.आई. टी. में सेलेक्ट हो जाय. मैंने रिंकू से बड़े दोनों लड़कों को बबलू ( रमाकांत ) एवं लल्ला ( शिवाकांत ) को इसी उदेश्य से FITJI , New Delhi में कोचिंग के लिए दाखिला करवाया था , लेकिन unfortunately वे सेलेक्ट नहीं हो सके थे. दो-दो लड़कों का आई आई tian होना मेरे लिए निहायत खुशी की बात थी. हम नियत दिन एवं समय पर पुणे पहुँच गये. यह महज संयोग की बात थी कि मेरा तीसरा लड़का शिवाकांत सरदार पटेल कोलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग , अंधेरी वेस्ट , मुम्बई में पढता था. उसे नियत दिन एवं समय पर I.I.T. Pawai बुला लिया था.
इधर से पूरा परिवार – श्रीकांत , अमृता ( श्रीकांत की धर्मपत्नी ), चंद्रकांत ( रिंकू ) और मैं ,अपनी कार से ही चलने का निर्णय कर लिया था ताकि सीधे कालेज पहुंचा जा सके बिना किसी परेशानी के. सपाट सड़क थी. हाई वे – पुणे टू मुंबई – दूरी 180 किलोमीटर . रास्ते में फेमस टूरिस्ट प्लेसेस खंडाला और लोनावाला. हमने पहला स्टोपेज खंडाला में दी. अपने-अपने पसंद के नास्ते किये . लजीज टेस्ट. गरमागरम आईटम्स . गाड़ियों की जमावड़ा . टूरिस्टों की जमात . भांति-भांति के लोग. संस्कृति व परिधान में विभिन्नता. भाषा में भी अंतर. इन सब के बाबजूद जो मुझे भान हुआ वह थी अनेकता में एकता. क्या मराठी, क्या गुजराती, क्या दक्षिण भारतीय , क्या पंजाबी, क्या बंगाली , क्या बिहारी – सभी के सभी घुलमिल कर ऐसे बातचीत कर रहे थे जैसे सब एक ही परिवार के सदस्य हों. उनके साथ जो छोटे – छोटे बच्चे थे , उनकी तुतली जुबान में बातचीत करने का ढंग ही निराला था. सच पूछिए तो में उन बच्चों की ओर ज्यादा ही आकर्षित था और उनकी मात्रीभाषा समझने का अथक प्रयास कर रहा था , लेकिन व्यर्थ . मेरे बड़े लड़के श्रीकांत ने बतलाया कि पुणे में सभी स्टेट्स के लोग काम करते हैं. वे सभी मिलजुल कर एक परिवार के सदस्य की तरह रहते हैं. अमृता के मन में कार ड्राइव करने की ईच्छा बलवती हो गयी. उसने चाभी श्रीकांत से ले ली और ड्राविंग सीट पर बैठ गयी. मैं कुछ देर के लिए श्रीकांत के बगल में आगे बैठा था , पीछे आकर बैठ गया और मेरी सीट पर आगे अमृता के बगल में श्रीकांत बैठ गया. फिर क्या था ? गाडी कुछ ही मिनटों में हवा से बात करने लगी. मेरी नज़र मीटर पर टिकी हुयी थी. देखा साठ , फिर सत्तर, फिर अस्सी और फिर नब्बे की रफ़्तार में कार उड़ने लगी. श्रीकांत पीछे मुड़कर बोला , “ अमृता को ड्राइविंग में कांफिडेंस है. घबडाने की कोई बात नहीं. मेरा तो , काटो तो खून नहीं. इतनी तेज रफ़्तार में कभी भी गाडी में नहीं चढ़ा था मैं . मेरा तो हाल बूरा था. जान धुक – धुक कर रहा था. हँसते-हँसते एक बार तो स्पीड़ सौ से भी ज्यादा पार कर दी . रिंकू और मैं सांस रोके पिछली सीट पर चुपचाप गुमसुम बैठे हुए थे. अमृता तो मजे से, इत्मिनान से गाडी हांके जा रही थी – बीच-बीच में बात भी करते जा रही थी श्रीकांत से.
पहुँचने से पहले ही बूंदा-बूंदी शुरू हो गयी. हम जब मेन गेट पर पहुंचे तो जोरों से बारिश होने लगी. हमारा तो रूम पहले से ही बुक था. हम शिवाकांत की प्रतीक्षा कर रहे थे . चिंतित भी थे कि इस बारिश में न जाने कहाँ होगा वह . श्रीकान्त की सूझ- बूझ को दाद देनी चाहिए कि वह गाडी लेकर मेन गेट तक पहुँच कर उसकी खोज में लग गया. थोड़ी ही देर में वह आते हुए दिखा . आराम से उसे गाडी में बिठाकर गेस्ट हॉउस तक ले आया. उसे देखकर हम खुशी से झूम उठे. मेरी वाईफ को छोड़कर परिवार के सभी लोग इस शुभ मुहूर्त में उपस्थित थे – यह एक अदृश्य कृपा का प्रतिफल था. हम साईँ बाबा के प्रति अपना आभार प्रगट करते नहीं थक रहे थे. मेरे अंतस्थल में उनके प्रति उफान उठ रहा था जिसे रोकना मेरे लिए कतई संभव नहीं था. उनके मीठे वचन “ सबूरी’ और “ श्रध्दा ’ मेरे मानस -पटल में जैसे बिजली की तरह कौंध रही हो- ऐसा प्रति क्षण मुझे आभास हो रहा था. उन दिनों न तो इतने जहाँ – तहां एटीएम खुले थे न ही इतना लोकप्रिय हुआ था. हम घर से पच्चीस हज़ार रूपये लेकर चले थे. पंद्रह हज़ार का ड्राफ्ट बनवाना था जिसे कौंसिल्लिंग के वक़्त जमा करना था. श्रीकांत मुझसे ज्यादा हुशियार निकला. उसने मेरे पुणे पहुँचने के पहले ही ड्राफ्ट बनवा लिया था. नहा धोकर हमलोग ब्रेकफास्ट करने गर्ल्स होस्टल के मेस में गये जहाँ निर्मला ( मेरे लड़के के दोस्त प्रशांत की वाइफ जो एमटेक में पढ़ती थी) ने हमारे लिए सारी व्यबस्था कर डाली थी. इतनी सुन्दर व्यवस्था देखकर हम दंग रह गये . लड़कियों का हुजूम वो भी तरह-तरह के सुन्दर परिधानों में खिलखिलाती – मुस्कराती देखकर मुझे ऐसा आभास हुआ कि मैं गलती से परियों के देश में पहुँच गया हूँ. निर्मला पहले से ही हमारी अगुआई में नयन – पाँवडे बिछायी हुयी थी. हमें इशारे से ही एक बड़े टेबुल पर अगुआई करती हुए बोली,’ यहाँ सेल्फ सर्विस है, नास्ता खुद लाना है.” हम टेबुल के चारों तरफ सहमे – सहमे से एक-एक कर बैठ गये. फिर उसने हमारी पसंद के नास्ते के लिए कूपन कटवा कर ले आयी. अतः हम पंक्तिवद्ध होकर अपना-अपना नास्ते का आईटम लेकर टेबुल पर चले आये. मजे ले-ले कर हमने उन परियों के देश में जलपान किया. सोचने वाली बात यह थी कि मेरा पेट ही नहीं भरा ,बल्कि उस खुशनूमा माहौल में मन भी भर गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि सबकी सब अमीर घर से होंगी या जो कीमती परिधानों को एफोर्ड नहीं करने वाली होंगी , वे भी उस वातावरण में घुलमिल गयी होंगी. रहन-सहन ,रख-रखाव,सुख-सुविधा हैरतंगेज !
मुझे बाल्यकाल से किसी बात को गहराई से जानने की उत्सुकता रहती है. इसलिए मैंने बात –बात में इस पर चर्चा छेड़ दी. फिर क्या था परत दर परत बात खुलती चली गयी. मुझे जो पता चला वो बड़ा ही इंटरेस्टिंग निकला. १९५१ में जस्ट आफ्टर आजादी मिलने के तुरंत बाद हमारे देश के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु ने विश्व स्तरीय इंजीनियरिंग संस्थान खोलने की बात सोच ली और इसे अमली जामा पहनाने के लिए डॉक्टर बी.सी. रॉय – वेस्ट बंगाल के चीफ मिनिस्टर से इस संबंध में बात की तथा अनुकूल जगह सुझाने का प्रस्ताव रख दिए . कई जगह देखे गये लेकिन पंडित नेहरु जी ने खडगपुर का वह स्थान पसंद किया जो एक तरह से वीरान व वियावान जंगल में अवस्थित था. यहाँ ब्रिटिश राज्य में फांसी घर था. यही नहीं यहाँ चुनकर स्वतंत्रता सेनानियों को काल कोठरी में रखा जाता था. क्रूरतम तरीके से मौत के घाट उता – रने की भी एक मशीन थी जिसमें सर निर्ममतापूर्बक कुचल दिया जाता था. इन सबों को देखकर नेहरु जी मर्माहत ही नहीं हुए बल्कि प्रभावित भी हुए. उसने उनकी याद में देश का पहला आई.टी.टी. संस्थान बनाने का अपना फैसला सुना दिया. सत्ताईस सो एकड़ में एक निर्जन स्थान में जमीन फ़ैली हुयी मील गयी. फिर क्या था सारी औपचारिकतायें पूरी कर ली गईं और देश में पहला विश्व स्तरीय प्रौदौगिक संस्थान १९५१ ई. में हिजली डीटेंसन कैम्प में खुल गया. नेहरु जी ने दुनिया देखी थी और उनका प्रौदौगिकी / तकनीकी मामले में देश को बुलंदी की शिखर तक पहुंचाना था. आज ( २०१२ तक ) आई.टी.खडगपुर विश्व के अग्रणी संस्थानों में से एक है .
आई.आई.टी. पवाई ( मुंबई ) उसके बाद खुला. जब यह पता-पाठन के लिए हर तरह से तैयार हो गया तो पडीत नेहरु जी को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया गया. नेहरु जी को चरों तरफ घुमाया गया तथा सारी आवश्यक बातों से अवगत कराया गया. जब फ़ास्ट ईयर स्टूडेंट का होस्टल दिखाया गया – सिंगल सुसज्जित रूम तो वे अपनी प्रतुक्रिया को रोक नहीं सके. “ लगता है आपने इसे फैव स्टार होटल में एक एस जोड़ कर फैव स्टार होस्टल बना दिया है. उनका कहने का तत्पर्ज तत्कालीन डिरेक्टर समझ गये . झेंपते हुए उसने आस्वस्थ किया की आगे से ऐसी गलती नही होगी. आपके सुझाव का पूरा –पूरा ध्यान रखा जायेगा. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी की आई.आई. टी. बॉम्बे , जिसकी स्थापना खड़कपुर आई.आई.टी. के बाद १९५८ में हुयी . का एक अलग ही रुतवा/पहचान है. यहाँ एड्मिसन के लिए लड़के लालायित रहते हैं. यही नहीं अच्छे रैंक होल्डर भी दू सरे संस्थानों की अपेक्षा बेटर ब्रांच मिलने की उम्मीदों की कुर्बानी देकर यहीं एड्मिसन लेना बेहतर समझते हैं.
रिंकू कौंसिल्लिंग के लिए पंक्ति में लग गया और हमलोग चारों तरफ घुमने-फिरने निकल गये. एक दिन हमें रूकना पड़ा . आत्मविभोर हो कर सभी लोग शाम को पुणे लौट आये. दुसरे दिन शाम को कोचिंग सेंटर में भब्य समोराह का आयोजन किया गया था. आई. आई. टी. में सफल होनेवाले छात्रों के अभिनन्दन में. अमृता , रिंकू एवं मैं समारोह में शामिल होने लिए समय पर निकल गये. सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था. सभी सेलेक्टेड विद्यार्थियों को नाम ले लेकर डायरेक्टर गोयल ने परिचय करवाया एवं समान्नित किया. जो सफल नहीं हो पाए थे उन्हें ढाढ़स दिलाई तथा फिर से दू ने जोश – खरोश के साथ जुट जाने के लिए प्रोत्साहित किया. हम मध्य रात्रि के करीब खाना खाकर घर लौट आये. रिंकू के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे. अमृता और मैं इतने गौरान्वित थे कि हम अपने आप में फूले नहीं समा रहे थे. नेक्स्ट एविनिंग फिजिक्स के टीचर को घर पर सम्मानित करना तय हुआ था क्योंकि रिंकू के सेलेक्सन में उनकी भूमिका अहम् थी. जैसा कि मुझे मालूम हुआ वे रिंकू का पूरा ख्याल ही नहीं रखते थे बल्कि प्यार भी करते थे. डीनर की व्यवस्था सपत्निक की गयी थी. वे नियत वक़्त पर आ गये. हमने ढेर सारी बातें कीं. हमने उनके प्रति आभार व्यक्त किया. रिंकू को आशीर्वाद देने के बाद वे प्रसन्नचित्त चल दिए. मैं एवं रिंकू दो दिन बाद घर लौट गये तथा एड्मिसन लेटर की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर सप्ताह भर में लेटर आ ही गया. टिंकू को खड़कपुर आई.आई. टी. में नेवल आर्किटेक्ट एवं ओसन इंजीनियरिंग ब्रांच मिला जिस ब्रांच में उसका बड़ा भाई श्रीकांत ने १९९४ से १९९८ तक पढ़ा था और सम्प्रति बहुरास्ट्रीय कंपनी पुणे में सीनियर सॉफ्टवेयर इंजिनियर के पद पर कार्यरत था.
सभी घर में नार्मल थे , लेकिन मेरी अवस्था सब से भिन्न थी. मुझे रात को ठीक से नींद नहीं आ रही थी. मैं रिंकू और उसके कठोर परिश्रम के बारे सोचता रहता था कि किन- किन विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए पुणे में एक साल बिताया. श्रद्धा एवं शबुरी के साथ अपनी पढ़ाई की और अंत में अपने लक्ष्य को प्राप्त किया. मैं उसके सुख – दुःख से भली –भांति परिचित था. मेरे दिल की बात वह अच्छी तरह जानता था, भले वह व्यक्त नहीं कर पाता था चाहे वजह जो भी हो. हमने खड़कपुर जाने की पूरी तैयारी कर ली. कौन- कौन साथ जायेगा रिंकू पर निर्णय के लिए छोड़ दिया गया. अभिवावक के रूप में मेरा जाना निश्चित था . रिंकू ने अपने अनुज टिंकू को और अपना भगिना कंचन को साथ ले जाने की इच्छा प्रगट की जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया. मेरी भी दिली ख्वाईश थी कि घर के बचे दो छोटे बच्चे को भी मालूम हो कि आई.आई.टी. में सेलेक्ट होना कितनी बड़ी ईज्जत की बात होती है. यह जुलाई का आख़री सप्ताह था. साल २००७ था. हम गोमो खड़गपुर पेसेंजर से सुबह आठ बजे भागा से निकल गये. एक दिन पहले ही निकल गये थे ताकि दूसरे दिन सुबह दस बजे कौंसिलिंग में हाजिर हो सके. हम स्टेसन से सीधे गोल बाज़ार चल दिए . हमें किसी राहगीर ने मधुबन गेस्ट हॉउस का पता बताया. हम जल्द लम्बे क़दमों से लोकेसन के मुताबिक पहुँच गये. मालिक डेस्क पर ही मिल गया. पूछा तो पता चला कि दो डबल रूम खाली है. हमने जल्द बुक कर दिया . सामान के साथ अपने-अपने रूम में चले गये. एक में टिंकू और कंचन और दुसरे में मैं और रिंकू. दोपहर की जर्नी और गर्मी का मौसम हमें भूख – प्यास जोरों की लगी हुयी थी . करीब चार बजता होगा. कहीं से पता लगाया कि मसाला डोसा आगे बायीं ओर किसी दुकान में मिल सकता है. हमलोग आगे बढे तो दूकान दूर से ही दिखलाई पडी तो हमारी जान में जान आयी. हमने चार मसाला डोसा का ऑर्डर कर दिया. खा-पी कर हमलोग अपने कमरे में चले आये. काफी थके हुए थे इसलिए आराम करने की बात पर बात-चीत हुयी तो इसे रात के लिए टाल दिया गया.
हम साईंकल की दूकान खोजने निकल गये. एक साईकल खरीदना जरूरी था. पास ही में दाहिने तरफ दूकान मील गयी. हमने एक अच्छी सी साईकल पसंद की और रूम मिल जाने पर ले जाने की बात की. दूकानदार भला था. वह शीघ्र राजी हो गया. हमने उसके कहने पर पांच सौ रूपये एडवांस कर दिए. इधर से निश्चिन्त हो जाने के पश्चात हमने फूटपाथ की चाय दूकान में चाय पी- आलस कुछ कम हुआ, थकान से भी कुछ हद तक निजात पा गये. फिर हम जो कमरे में घुसे तो रात आठ बजे खाना खाने निकले . एक अच्छा सा ढाबा में तंदूरी रोटी ,सब्जी और ताड़का का ऑर्डर दिया. गरमा गरम खाना जल्द ही चला आ गया. जी भर के हमने खाना खाया. दोपहर का कसर रात में निकालने में किसी ने भूल नहीं की. थके तो थे ही, बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गयी.मैं आदतन शुबह ही विस्तर से उठ गया . नहा-धोकर तैयार हो गया . बच्चों को तैयार होने के लिए उठा दिया. मैं पूजा-पाठ में मग्न हो गया . आठ बजे हम रिक्शा से दूलाल बाबू की दूकान में जलपान करने चले आये. किसी ने मशाला डोसा , किसी ने पूड़ी-सब्जी तो किसी ने इडली – बड़ा का ऑर्डर दे दिया. मात्र बारह रुपये में मशाला डोसा और दस में पूड़ी – सब्जी तथा इडली-बड़ा . हमें तो सब कुछ मालूम था ,लेकिन बच्चे इतने कम रेट जानकार आश्चर्यचकित हो गये. गरमा-गरम तो था ही टेस्ट फुल भी इतना कि हम उँगलियाँ चाट-चाट कर प्लेट तक साफ़ कर दिए.
फिर कौन्सिलिंग के लिए रिंकू पंक्ति में लग गया. काफी बड़ी पंक्ति थी. इत्मिनान से आने पर पचास – साथ बच्चों के बाद नंबर मिला. हमलोग रिंकू को सूचित कर इधर –उधर चहल कदमी करने निकल गये. एक केरेलियन टी स्टाल में जाकर तीन चाय का टोकन कटाया. पेड़ के नीचे चबूतरा पर बैठ कर चाय भी पी और टिंकू तथा कंचन को I.I.T. Kharagpur के बारे में मैं जितना जानता था बताया . लेक्चर हॉल, होस्टल ,लायब्रेरी , एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग ,गेस्ट हौस , में बिल्डिंग ,गार्डेन , प्ले ग्राउंड , स्विमिंग पूल गिम इत्यादि दिखा दिए. यह भी बताने में कोई चूक नहीं कि यह देश की पहली संसथान है जो आजादी के तुरंत बाद पंडित जवाहर नेहरू के प्रयास से बने . यह २७०० एकड़ जमीं में फैला हुआ है . यह एशिया महादेश की सबसे अग्रणी प्रौदोकी संसथान में गिना जाता है. यहाँ जितने ब्रांचो. की पढ़ी होती है , शायद दुनिया के गिने-चुने संस्थानों में ही होती है. यहाँ पढना अपने आप में एक गपूर्ब गौरब की बात समझी जाती है. यहाँ बच्चों को हर एंगल से तराशा जाता है और उसे अपने-अपने ब्रांच में काबिल बनाया जाता है.देखा दोनों बच्चे टिंकू और कंचन मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे. उन्हें ऐसी अभूतपूर्व संस्थान देख कर कौतुहल व आश्चर्य हो रहा था. मेरे अनुसार संस्थान का भ्रमण कोई मंदिर, मश्जिद, गुरुद्वारा व गिरजाघर से किसी माने में कम नहीं था. बच्चों ने भी इस तथ्य को स्वीकारा और अपनी अभिव्यक्ति दी. ‘ बाबू जी , हम ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि इतना बड़ा कोलेज भी हमारे देश में है और वो भी निर्जन स्थान में, ,इतनी बड़ी एरिया में . सुन कर ही तो ताज्जुब होता है ,देखने से तो …..? ‘ दो ही पंक्तियों में बच्चों ने सारी बात कह दी, हमने मन ही सोचा कि इन बच्चों को , ऐसे शुभ मौके में , अपने साथ लाना सार्थक हो गया. उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि उनके मन में भी यहाँ पढने की ईच्छा जागृत हो गयी है. हम घूम-घाम कर कौंसिल्लिंग की जगह आ गये . देखा रिंकू अब भी बहुत पीछे है. उसके पीछे महज सात-आठ लड़के हैं. लेक्चर हॉल था . हमलोग सबसे पीछे बिलकुल ऊपर वाली बेंच पर आकर निढाल हो गये. रिंकू भी खीज कर पंक्ति से बाहर हो कर हमारे पास आकर बैठ गया हमसे रहा नहीं गया . मैंने सवाल दागा, ‘ क्या बात है पंक्ति से निकल कर आ गये ?’ ‘ अब मुझे सबसे लास्ट में जाना है.’ – रिंकू ने संक्षेप में जवाब दिया. हम समझ गये कि रिंकू खड़े –खड़े खिन्न हो गया है. सोचा भूख-प्यास भी लगी होगी. हम टी – स्टाल की ओर चल दिए . चार जगह टोस्ट आमलेट , कुछ इडली-बड़े लेते आये . दो बोतल मिनरल वाटर भी ले लिए. लम्बे-लम्बे डेग से जल्द ही पहुँच गये . बच्चे बहुत खुश दिख रहे थे. रिंकू के होंठों पर तो मुस्कराहट साफ़-साफ़ झलक रही थी. ‘ बाबू जी , बड़ी जोर की प्यास लगी थी, पानी लेते आये , साथ में खाना , बड़ा अच्छा किया. मुझे तो जोरों की भूख लगी है. उसने मेरे हाथों से सम्हाल कर निकालते गया , टिंकू और कंचन की ओर बढ़ाते गया. अंत में अपने लिए रख और एक मेरे लिए हाथ में ही छोड़ दिया. बड़े इत्मिनान से व प्रेम से हमने मिलकर खाना खाया. ‘ अच्छा किया पंक्ति से निकल कर आ गये. सात –आठ लड़के से पहले या बाद – यह एक ही बात प्रतीत होती है .इत्मिनान से यहाँ बैठो, जब दो-तीन लड़के बचे रहेंगे तो पंक्ति में जा कर लग जाना. ‘ हाँ, बाबू जी, यही मैं भी सोच रहा हूँ, फजूल का वहां खड़ा रहने से क्या फायदा १” – रिंकू ने कहा. ‘ यहीं बैठ कर हम बातें करे , ज्यादा बेहतर है यह. – मैने अपनी बात रखी. भीड़ बिलकुल कम हो गयी थी. सभी कुछ चेक आदि जमा हो जाने के बाद हमने गेस्ट हॉउस छोड़ने का मन बना लिया . फजूल का भाड़ा देना वुद्धिमानी की बात नहीं थी. होस्टल में रूम मिल चूका था और चाभी हमारे कब्जे में थी. हम शीघ्र गोल बाज़ार चल दिए. बेडिंग वगेरह शिफ्ट कर दिए. बायसिकल भी रिक्शे पर लोड कर दिया गया. हम होस्टल के रूम में चले आये. जैसा संभव हो सका , रूम की सफाई हमने कर दी और इत्मिनान से बैठ कर बातचीत में मशगुल हो गये. डबल बेडेड रूम था और रूमेड का कहीं अता – पता नहीं था.
इतनी देर में रिंकू समझ गया था कि हमें और ठहरना नहीं है. मैंने समझा कर रिंकू को कह दिया. रिंकू मेरी बात सुनकर उदास हो गया . शाम हो चुकी थी . हम पैदल ही चल दिए. हमारे पाँव इतने बोझिल थे कि हमसे चला नहीं जा रहा था. रिंकू का तो हमसे भी हाल बूरा था. महज अठारह साल का अबोध बालक . पहली बार घर से , माँ- बाप ,भाई- बहन से अलग हो रहा था. उसके मन की पीड़ा उसके उदास चेहरे से साफ़-साफ़ मालूम पड़ रही थी. हमने सबों से कुछ खाने का प्रस्ताव रखा तो सभी राजी हो गये. चार मसाला डोसा का ऑर्डर कर दिया. हमने दो-चार कौर खा लिए , लेकिन रिंकू अभी शुरू भी नहीं किया था. मुझसे उसकी हालत देखी नहीं जा रही थी. मैंने ढाढ़स बंधाते हुए कहा, ‘ रिंकू, खाओ , बेटा ! इतना उदास क्यों होते हो ? हमलोग तुमसे मिलने आते रहेंगे. इतनी अच्छी संस्थान में दाखिला हुआ है, तुम्हें तो खुश होना चाहए, लेकिन देख रहा हूँ तुम …’ रिंकू पर मेरी बातों का कोई असर नहीं हुआ. हम भी जैसे – तैसे खाकर बाहर आ गये. रिंकू मौन , मूर्तिवत हमारा रास्ता रोककर खड़ा हो गया और कंचन की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘ तुह्नी सब इतनी जल्द, हमरा, अकेले छोड़ के चल जैबे ? उसने अपने दिल की बात हमारे सामने खोल कर रख दी थी. मुझे ऐसा लगा की रो पडूंगा . मेरी आँखें डबडबा गईं . टिंकू आगे बढ़कर कहा, ‘ बाबूजी, चलिए , हमलोग आज रिंकू के साथ रहते हैं , कल जायेंगे. फिर क्या था हमलोग उलटे पाँव होस्टल लौट गये. हमलोगों ने कोमन रूम में एक साथ सोने का निश्चय किया. गद्दी,दरी, विछावन आदि रूम से लेते आये. मैं एक तरफ और बच्चे सब दूसरी तरफ बैठ गये . आठ बजे के करीब हमलोग खाना खाने निकल गये. बच्चे सब देर रात तक बात-चीत में निमग्न थे. मैं मन व तन दोनों से काफी थका हुआ था . इसलिए मुझे नींद आ गयी. कब शुबह हुयी पता ही न चला. मैं तो टहलने निकल गया ,लेकिन बच्चे देर तक सोये ही रहे. मैंने भी उन्हें उठाना उचित नहीं समझा. झट-पट मैं नहा- धोकर तैयार हो गया और सबके उठने का इन्तजार करने लगा. सभी बच्चे एक-एक करके उठे और वे भी शीघ्र तैयार हो गये. मुझे बताने की जरुरत नहीं पडी. हमलोग जलपान के लिए दुलाल की दूकान पर गये और अपनी – अपनी पसंद के नास्ते का ऑर्डर दे दिए. घंटे भर ही में हमलोग होस्टल लौट आये. रिंकू को हमने दो बजे वाली पेसेंजर ट्रेन से घर लौटने की बात बता दी. गप्पसप में समय निकल गया. एक बजे हमने होस्टल छोड़ दिया. गेट तक हम पैदल ही आये. रिंकू अपनी सायकल साथ ले लिया था ताकि उसे लौटने में कोई दिक्क़त न हो. गेट के पास ही हमने दो रिक्सा कर लिया – एक में मैं दूसरे में टिंकू और कंचन सवार हो गये. रिंकू हमारे करीब आ गया. पाँव छूकर प्रणाम किया. कुछ देर पहले उसका जो चेहरा प्रसन्न दीखता था क्षणभर में ही मलान हो गया था.टिंकू और कंचन के समीप जाकर ‘ बाई-बाई ‘ आदतन रिंकू ने बुझे मन से किया , साइकल मोड़ी और चल दिया. एक बाप के दिल पर क्या बीता इसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता , केवल एहसास किया जा सकता है. मैंने मन को मनाने में कोई कौर कसर नहीं छोडी , लेकिन सीट पर ज्यों ही बैठा और ट्रेन ज्यों ही चल पडी , मैं फफक- फफक कर रिंकू की बातों और उसके मासूम चेहरे को याद कर-कर के रो पड़ा. अगल-बगल जो यात्रीगण बैठे हुए थे एकाएक इस तरह मुझे रोते देखकर पूछ बैठा,’ क्या बात है , अचाकक रो पड़े ? ‘ मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था. इसलिए मैं उठकर, बच्चों के पास जाकर बैठ गया.
आत्मकथा का यह अंश दिनांक ०३.०३ २०१३ को पूर्ण हुआ.
– दुर्गा प्रसाद