कुछ नम, कुछ ग़म – १
1. तुम बिन
तुम्हें भूलना चाहता हूँ, पर भूलूं कैसे?
शून्य में भी तुम्हारा चेहरा प्रकट होता है.
तुम्हें पास बुलाना चाहता हूँ, पर बुलाऊं कैसे?
फ़ास्ला हमारे बीच का मिटाने से नहीं मिटता है.
तुमसे दूर जाना चाहता हूँ, पर जाऊँ कैसे?
जहाँ भी जाऊँ तुम्हारा वजूद ही नज़र आता है.
तुम्हारे नूर की रोशनी ढूंढता हूँ, पर पाऊँ कैसे?
चारों ओर जीवन में अंधेरा ही अंधेरा दिख्ता है.
आब दुनिया छोड़ना चाहता हूँ, पर छोड़ूं कैसे?
इधर देखूँ या उधर, रास्ता नज़र नहीं आता है.
न जी सकता हूँ न ही मर सकता, जियूँ तो जियूँ कैसे?
हर तिन्का लगता है एक पहाड़ और हर पल एक युग लगता है.
2. अनजान उफ़क़
दिल दर्द बन तड़पता रहा
दर्द दिल बन धड़कता रहा
न रास्ते का पता न मंज़िल की ख़बर
अनजान उफ़क़ की ओर चलता रहा.
बीते हुए कल की मीठी यादों में खोये
आनेवाले कल की अनिश्चितता पर रोये
मायावी मौत की दिशाहीन तलाश में
अनजान उफ़क़ की ओर चलता रहा.
हमसफ़र को खोने के ग़म में सिसकते हुए
जीवन के सफर को काटने का तक़ल्लुफ़ निभाते हुए
दुनिया के बेरहम रास्तों में भटकते हुए
अनजान उफ़क़ की ओर चलता रहा.
आख़िरकार बेदर्द सफर मंज़िल तक पहुंचा
दूर शिखरों पर स्वर्णिम चेहरा प्रकट हुआ
बिछड़े हमसफ़र से पुनर्मिलन की आशा जगी
हाथ आया उफ़क़ अब अनजान न रहा.
3. ख्वाबों का हक़दार
मालूम नहीं तुम किसी शायर की ग़ज़ल हो, या सूफी का तसव्वुर, या फिर किसी आशिक़ का ख़याल.
बस इतना जानता हूँ कि बाद-ऐ-फ़नाह भी तुम मेरे ख्वाबों के हक़दार हो.
4. ज़िन्दगी और मौत
कहते हैं वह एक महीन लकीर है
जो ज़िन्दगी और मौत को अलग करती है.
मानता हूँ कि वह इतनी महीन है
अब मेरी ज़िन्दगी मौत बन गयी है.
5. दुविधा
ग़म-ए-रुखसत-ए-मेहबूब शदीद है.
फ़र्ज़-ऐ-हयात की संजीदगी गहरी है.
करूँ क्या, ऐ मेरे टूटे दिल?
एक का पलड़ा दुसरे से भारी है.
…श्याम सुंदर बुलुसु
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