कुछ नम, कुछ ग़म – ५
तुझको पाकर सारा जहां पा लिया मैंने
तुझको पाकर सारा जहां पा लिया मैंने …
क्या करूंगा इस समंदर का ?
तेरी आँखों में डूबकर स्वर्ग पा लिया मैंने।
क्या करूंगा इस धरती का ?
तेरे सब्र की आगोश में सुकून पा लिया मैंने।
क्या करूंगा इस नदिया का ?
तेरे प्यार में सुख का सिरा पा लिया मैंने।
क्या करूंगा इस आसमान का ?
तेरी बाहों के पंखों के सहारे विश्व को पा लिया मैंने।
क्या करूंगा इस ख़ुदी का ?
तेरे वजूद में ख़ुद को खोकर तुझको पा लिया मैंने।
तुझको पाकर सारा जहां पा लिया मैंने …
एक नाचीज़ का तारुफ़
मैं वह रंग हूँ जिसकी कोई कूंची नहीं
मैं वह कूंची हूँ जिसकी कोई तस्वीर नहीं
मैं वह तस्वीर हूँ जिसका कोई रूप नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह सुर हूँ जिसका कोई राग नहीं
मैं वह राग हूँ जिसकी कोई आवाज़ नहीं
मैं वह आवाज़ हूँ जिसकी कोई क़द्र नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह स्याही हूँ जिसकी कोई कलम नहीं
मैं वह कलम हूँ जिसका कोई अल्फ़ाज़ नहीं
मैं वह अल्फ़ाज़ हूँ जिसकी कोई कहानी नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह जज़्बा हूँ जिसका कोई नग़मा नहीं
मैं वह नग़मा हूँ जिसकी कोई गायकी नहीं
मैं वह गायकी हूँ जिसकी कोई रूह नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह कदम हूँ जिसका कोई सफ़र नहीं
मैं वह सफ़र हूँ जिसका कोई रास्ता नहीं
मैं वह रास्ता हूँ जिसकी कोई मंज़िल नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह आँख हूँ जिसकी कोई नींद नहीं
मैं वह नींद हूँ जिसका कोई ख़्वाब नहीं
मैं वह ख़्वाब हूँ जिसका कोई हक़दार नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
मैं वह अंग हूँ जिसका कोई जिस्म नहीं
मैं वह जिस्म हूँ जिसकी कोई शख़्सियत नहीं
मैं वह शख़्सियत हूँ जिसकी कोई रूह नहीं
नाचीज़ हूँ, मेरा कोई तारुफ़ नहीं।
ख़म-ओ-ग़म
उम्र बीत गयी मेरी
कुछ उनकी ज़ुल्फ़ों के ख़मों की पनाह में,
कुछ उनकी फुरक़त के ग़मों के सैलाब में ।
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—श्याम सुन्दर बुलुसु