शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू बेवफा निकले ,
वक़्त की कमी के आगे ………. मैं तुझे क्यूँ कहूँ बेवफा ?
तेरा एक पल के लिए आना ………. आकर के चले जाना ………. अच्छा था , अच्छा था ,
वो मीठी बातों को दोहराना ………. अपनी बेबसी बताना ………. अच्छा था , अच्छा था ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू अलविदा कहे ,
अपने काम की मसरूफ़ियत में ………. तू हरगिज़ नहीं बेवफा ।
दूरियाँ दिलों से नहीं सनम …………. दूरियाँ मनों से बना करती हैं ,
जब अपने मनों में ही नहीं खोट ………. तो दूरियाँ नहीं टिका करती हैं ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू अपने अहम से सर पटके ,
अपने सर को बेबसी में झुकाने से ………. तू कभी नहीं बेवफा ।
इतना ही था काफी …………. कि तू रुका तो सही मेरे लिए दो पल ,
कुछ कहा तो मुझे दो पल ………. कुछ सुना मेरा भी दो पल ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू पलट के ना देखे ,
तेरी “आह” में आज भी गर तड़प है ………. तो फिर तू कैसे है बेवफा ?
वो नज़रों का नज़रों से मिलना …………. वो एक हलकी सी अगन का खिलना ,
वो सावन में लौटी ………. एक फिर से नज़ाकत ………. अच्छी थी , अच्छी थी ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब मेरी साँसों को चलना ना आए ,
तेरे संग चली और तेज़ ये ………. तू सच में नहीं बेवफा ।
मैंने रोका खुद को बहुत …………. मगर तेरे संग जी उठी मैं ,
थोड़ी झूमी गगन में ………. थोड़ी पवन में ………. तुझे याद करके सनम ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू जाने लगे मुँह फेर के ,
अपनी बातों के संग गुदगुदाने पर मुझे ………. मैं कहती नहीं तुझे बेवफा ।
ना तू बिलकुल था बदला ………… ना मैं ही थी बदली ,
फिर भी है गर दूरी ………. तो समझो मजबूरी ………. मत करो इतनी जल्दी ।
शिकवा-शिकायत तो तब हो ………. जब तू मेरे हर कदम पर कदम कुचले ,
मुझे फिर से बुलाने का ………. तू ढूँढे बहाना ………. तू सच में नहीं है रे बेवफा ।।
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