तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपना दिल बहलाने को ,
मैं इस कश्मकश में चुप रह गई ……….
कि अभी वक़्त है बदरा के घिर आने में ।
मैं कह नहीं पाती हूँ तुमसे ………. अपने दिल में दबी जो बात ,
ये सोच कि तुम समझोगे शायद ……… मेरे अंदर के खुद ज़ज़्बात ।
तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपना साथ निभाने को ,
मैं इस कश्मकश में बंध के रह गई ……….
कि अभी वक़्त है सूरज के ढल जाने में ।
मुझे नहीं आता सनम ………. तुम्हारी तरह इशारे करना ,
कुछ चुने हुए से शब्दों में ……… हज़ारों अर्थों को पढ़ना ।
तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपना बदन सहलाने को ,
मैं इस कश्मकश में सिमट के रह गई ……….
कि अभी वक़्त है मौसम के मिज़ाज़ बदल जाने में ।
मुझे सिखा जादू चलाना ………. क़त्ल करना और बातें बनाना ,
अपने अंदर की शरम को ……… किसी और की शर्म के संग मिलाना ।
तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपनी शर्म मिटाने को ,
मैं इस कश्मकश में उलझ के रह गई ……….
कि अभी वक़्त है जवानी के ढल जाने में ।
मैंने कई बार बहाने से ………. तुम्हे बुलाने की सोची ,
सोचा कि कह दूँ लाओ ना ……… मेरे अंदर पहले जैसी सी ……… फिर वो गर्मजोशी ।
तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपनी गरमी दिखलाने को ,
मैं इस कश्मकश में तड़प के रह गई ……….
कि अभी वक़्त है तेरे संग पिघल जाने में ।
मेरे मन में दबी थी जो बात ………. वो मैंने यहाँ बयाँ कर दी ,
ये सोच कि कभी पढोगे गर ……… तो एक आस बुलाने की ……… शायद वहाँ भी पनपेगी ।
तुमने बुलाया ही नहीं मुझे अपनी रूह में बस जाने को ,
मैं इस कश्मकश में बिखर के रह गई ……….
कि अभी वक़्त है एक-दूजे के संग मिट जाने में ।।
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