The girl representing the emancipation of women finally reaches a platform. Now she can take her flight to any course she desires. She breaks off the clutches that society had forced her into,when finds a firm ground for herself with a bright future awaiting her.Read Hindi poem,
आखिर पहुँच ही गई मेरी सवारी !
जहाँ पहुँच कर,
तट पर मैं खड़ी हूँ लहरों से लड़ी हूँ उस किनारे पर बसी,
मेरी हँसी रास्ता सुन्दर था मंज़िल और खुबसूरत हैं
अपनी पैनी नज़र गड़ाकर मुश्किलों को बाँझकर
अंतिम पड़ाव को चली जहाँ नदी समुद्र में जा मिली
मझधार में नांव थी,सवैये खींचे किसने खवैये ?
अरे कमाल हो गया क़िस्मत,चमतकार या मेंहनत ने
ये किया या फिर उस द्रिव्य ज्योति का था दीया
जिसने अंधेरे पथ में रास्ता दिखाया!
कभी घर से चली थी फिर सपनों के लिए लड़ी
आखिर पहुँच ही गई हूँ!
अश्रु के आँचल बिछाकर ज़िन्दगी का पिछाकर
बड़ी दौड़ लगाई मैंने!
शीतल हवा के बहने का ढ़ंग अलग ही हैं
हर चीज़ को देखने का ढ़ंग अलग ही हैं
जीवन कभी सिर्फ बीतता था अब इसे खुलकर जीना हैं
किसी ने सही ही कहा हैं कुछ ऐसा ही
तो मैंने सुना हैं जहाँ चाह हैं, वहीं राह हैं!
इसमे कुछ जोड़ूँगी अपने से कुछ पिरोऊँगी
चाह को राह तब मिलती हैं जब श्रम तप से जुड़ती हैं
मैंने अपने अनुभव से सीखा जब कोई उम्मीद न दिखा
केवल इतना पता था की
अब कोई पता नहीं कोई वास्ता नाता नहीं
पहली बार अपने लिए लड़ी जोड़ी
एक से दूसरी कड़ी सपनो के आगमन से
इस नये स्वावलम्बन से कही हैं खुशाली
कही आशा निराली
पर अब भी मुझे खेद हैं की अपनों से भेद हैं
यह कैसा विहार हैं हर जाननेवाला परिवार हैं
हृदय मे हैं उल्लास
मगर न हो जीवन विलास
इसलिए कहती हूँ बहनो क्यों सहती हो?
कभी घर से चली थी फिर सपनो के लिए लड़ी
आखिर पहुंच ही गई हूँ!
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