शब्दो का मायाजाल
१
शब्द!
बाँधे नहीं बँधते ये शब्द!
ये तो बने ही है विचरण के लिए,
विवृत्त नभ में पंख खोल उड़ने के लिए;
ये तो बने है तैरने के लिए,
सरिता से जलधि तक बहने के लिए|
ये बने है मन-मोहन के लिए,
मनुष्य के उर की सिहरन के लिए;
ये बने है दून की मंद गुँजन के लिए,
हिमाच्छिद शिखरों पर लहरने के लिए|
ये बने है शिशिर की सर्द हवाओ के लिए,
और उन्ही शुष्क पत्तो पर हिलने के लिए|
झूल-झूल गिर जाते है,
कही खो जाते है ये शब्द|
किन्तु बाँधे नहीं बँधते ये शब्द|
जिह्वा से कंठ में,
और कंठ से अंतरंग में,
ये चाहे उतर जाए;
हृदय के किसी कोने में,
छिप छिप कर रोये,
या नेत्रो से ही,
वे बह जाए;
या किसी कागज़ पर,
कलम से चुपचाप उतर जाए|
ढूँढ ही लेते है कोई मार्ग किन्तु,
बाँधे नहीं बँधते ये शब्द|
शब्द!
शब्दो का मायाजाल
२
विचित्र है ये शब्द!
रोज नया आडम्बर रचते है,
ये शब्द!
कभी अधरों से निकल कर,
मधुरता का रस पी कर,
किसी के अंतःकरण को
वश कर लेते है|
किन्तु कभी कभी वे,
सर्पो का विष पी कर,
उसी अंतरंग को डस जाते है|
कभी कभी वे
हृदय के ताजे घावों पर,
कोई औषधि बनकर,
सारी पीड़ा हर लेते है|
किन्तु कभी कभी वे,
श्वेत लवण बनकर,
उन्ही घावों को दग्ध कर जाते है|
कहते है अपरावर्तित होते है ये शब्द!
युद्धो को खडग-ढाल से लड़ा जा सकता है,
किन्तु उन युद्धो को जन्म देते है ये शब्द|
विचित्र है ये शब्द!
कहीँ प्रेम का,
तो कहीँ द्वेष का,
कहीँ क्रांति का,
तो कहीँ शांति का,
कहीँ सुख का,
तो कहीँ दुःख का,
कहीँ ज्ञान का,
तो कहीँ मिथ्याज्ञान का,
कहीँ निर्माण का,
तो कहीँ विध्वंश का,
कहीँ विचार का,
तो कहीँ व्यापर का,
बीज बोते है ये शब्द|
विचित्र है ये शब्द!
रोज नया आडम्बर रचते है,
ये शब्द!