This Hindi poem highlights the issue of broken marriage in today generation where they tie their marriage knots under their parents pressure but the tie of that knot is very-very weak
सात फेरों के सात बंधन …..सात दिन भी ना साथ चल सके ,
जो निभाते थे कभी कसमें सात जन्मों की ,
उनके सात अक्षर भी ….सात मिनटों में फीके लगने लगे ।
शादियाँ नहीं अब तो ये समझौता है ……सिर्फ जिंदगी का ,
साथ रहने की भी कई शर्तें हैं ,
ये खुलासा है …….इन बंधनों का ।
अब ना वो दूल्हा है ना दुल्हन है …….जिसमे थी तड़प एक दूजे को पाने की ,
अब ना वो रंग है ……ना रौनक है ,
जिसमे थी तलब ……एक-दूजे में समाने की ।
बस एक औपचारिकता रह गयी है …….बंधनों में खुद को बाँधने की ,
और अगले ही पल में तोड़ देंगे ,
हर उस “औपचारिकता” को …..कह ज़बरदस्ती ज़माने की ।
हर दस में से चार शादी ……रोज़ टूटा किया करती हैं ,
सात फेरों से बंधी थी जो कभी एक दिन ,
उनमे कभी दूल्हा खफा होता है ……तो कभी दुल्हन दगा देती है ।
कहीं एक “मैं” दोनों की ……उनके सर पर चढ़ी होती है ,
जिसमे फँसे दोनों आज़ादी को तड़पते हैं ,
तो कभी किसी तीसरे की कहानी ……वहाँ शब्दों को पिरोती है ।
वो “सात फेरे”…..जो मंडप में किये थे उन्होंने पूरे ,
वो सात महीनो में ही हो गए देखो ,
फिर से ना जाने ……कितने अधूरे?
फिर क्यूँ शादियाँ करने पर …..मजबूर ये समाज करता है ?
जब Live-in relationship से ,
दोनों का ……भरपूर काम चलता है ।
ये कच्चे धागे “सात फेरों” के …..मंडप पर ही टूट जाने दो ,
क्यूँ इन्हें ज़बरदस्ती बाँध ,
“सात पलों” को भी ……अपनी जिंदगी से जाने दो ।
गर मन से मन का मिलन होगा …..इन सात फेरों में ,
तो किसी बंधन की बेड़ी फिर ना सजेगी ,
क्योंकि तब बंधे होंगे वो …..एक अंदरूनी चाहत के घेरे में ।
ऐसे “सात फेरे ” रह गए देखो ……..भला अब किस काम के ?
जिनमे आग है ……मन्त्र हैं ……सात घेरे हैं ,
मगर रिश्तें हैं गर ……तो बस सिर्फ नाम के ॥
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