जल बिन मीन प्यासी सी
जल बिन मीन प्यासी सी
जिगर की बात जो
जुबाँ पर आती है
कह नहीं पाती जो
सदियों से अटक जाती
लबों के बीच फंस गयी
वो पास बैठी है जो
सबकुछ जानती है पर
मेरी आँखों में आँखें डाल
नहीं पाती है, मुखातिब भी
हो नहीं पाती , सकुचाती है
शर्माती है इस कदर कि
मानों यह पहली मुलाक़ात हो
जैसे सोहाग रात में हम
अकेले ही होते अजनवी जैसे
न चाँद होता है जो झांकते
न सितारे होते जो कभी
बुझते तो कभी जलते
न ही हवा की शरद झोंके
जो खुले – खुले बदन को
बिंधते बिच्छू की डंक जैसे
एक आसमान होता है जो
नींद की बाहों में सोता
और सफाफ बादलों जैसे
कोई सिगार की धुंआ
कभी इधर तो कभी उधर
अस्थिर अशांत विकल
हुबहू तम्हारी तरह जैसे
आ टपकती थी मेरे पास
कि जैसे खिली धुप में हो
बरसात जैसे हो मधुर
एहसास जल कणों के
जैसे हो कोई नैसर्गिक
छुवन कि जैसे हो एक
कसक एक ललक एक तड़प
आगोश में थाम लेने को
पर तेरा शतरंजी चाल न
शह न मात घंटों तक
उलझे बालों को फैला देना
जैसे कि जुबानों में अफ़साना
जैसे वीरानों में भटकाना हो
जैसे लोलीपोप से भुलाना हो
आज चल देना है साडी के
पल्लू को झटकते हुए और
मेरे शांत चेहरे से खेलते हुए
कि जैसे कोई खिलौना हूँ मैं
तेरे लिए कि जब दिल चाहा
खेला जी भर वरना फटकार
कर चलते बने तब भी वही
जब कदम रखी थी दह्लीज
पर सोलह ही सीढियां पार
उम्र की महज चढ़ पाई थी
यौवन में इठलाती मदमाती
दौड़ी चली आती थी जैसे
कोई प्यासी नदी हो कि जैसे
कोई व्याकुल हिरन हो जैसे
भ्रमर हो फूलों की तरफ जैसे
झोंकें हो पवन के कि जैसे
चकोर हो निहारते हुए अपलक
चारू चन्द्र को फलक में जैसे
और अब जब साठ की देह्डी
पर हो फिर न वो जोश है
न ही जज्वा है न जूनून है
तब तो लोग क्या कहेंगे
कहकर चल देती थी पर
अब तो वो बात रही नहीं
पास क्यों नहीं आती हो
हो क्यों इतनी दूर खडी
अबतक मूर्तिवत बनी सी
जैसे कोई नारी नहीं प्रतिमा
मुखर पडी और बेझिझक
उबल पडी कि जैसे शोडसी
आज भी लज्या आती है
वैसे जैसे कल आती थी
जिगर से बात निकल आती
पर लबों के मध्य फंस जाती
जैसे दिल सीने में सनी सनी
डूबी डूबी निकालकर दे नहीं
सकती हथेलियों में तेरी कि
जैसे जानों इश्क है कितनी
मैं बुझा बुझा सा आँखों में
उनको तलाशता हूँ मगर
परछाई नज़र आती उनकी
वही कसक वही तृष्णा जैसे
जल बिन मीन प्यासी सी |
**
रचयिता : दुर्गा प्रसाद |