मेरे घर के पास एक बरगद का पेड़ हुआ करता था,
जब भी हवा चलती बहुत सुन्दर गजल कह जाता था,
उस पेड़ पर कुछ मोर भी रहा करते थे ,
उन मोरो की आवाज से दिल बहल जाता था
बचपन मे वो शाम हुआ करती थी,
और उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
वो गर्मी की धूप नूरानी लगती थी,
वो सर्दी की हल्की सी बारिश सुहानी लगती थी,
अभी कल की ही तो बात है, वो बारिश के पानी मे कागज की कश्ती चलाया करते थे,
उन्ही बारिश की नन्ही बूंदो मे घण्टों घण्टों नहाया करते थे,
याद है ना जब माँ के हाथ का खाना भी बेमन से खाया करते थे ,
शाम होती नहीं के खेलने निकल जाया करते थे,
बचपन मे वो शाम हुआ करती थी,
और उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
पता ही नहीं चला कब वो बचपन की याद जवानी मे बदल गयी,
वो ही नूरानी धूप तपती दोपहर मे बदल गयी,
मैंने अपने ही हाथों से उस सावन के मौसम को पतझर में बदल लिया ,
क्युकी अब मैं अपना घर छोड़ , कमाने उस अनजाने शहर को निकल लिया ,
जब नहीं भरता पेट उस चौपाटी के खाने से तो उसी माँ के खाने की याद आती है ,
जब घुटता देखता हूँ इस शहर को धुंए में , तो हमेशा वो बचपन की दुधीली शाम याद आती है
बचपन मे वो शाम हुआ करती थी,
और उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
अब तो सुबह के बाद सीधा रात होती है,
अब दोस्तों से नहीं, अब तो खुद की खुद बात होती है
बचपन मे वो शाम हुआ करती थी,
और उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
उस शाम के इन्तजार मे दिन निकल जाता था,
–END–