परिदें
आपसे मैं बेंइन्ताह मोहब्बत
करता हूँ
मगर कह नहीं सकता
कोशिश तो करता हूँ कि
जो सालों से संजोकर रखा हूँ परिदें
आपसे मैं बेंइन्ताह मोहब्बत
करता हूँ
मगर कह नहीं सकता
कोशिश तो करता हूँ कि
जो सालों से संजोकर रखा हूँ
जिगर कि किसी कोनें में
अमानत की तरह
उगल दूँ तब जब आप
मेरी बाहों में हों
तब जब आपकी जुल्फें हो
मेरे सीने पर बेखबर
इस कदर कि जैसे
बादलों का झुण्ड हो
चाँद के ऊपर कि जैसे
ज्वारभाटे का जल हो
समंदर के तट पर
आती है हर पल
लौट जाती है हर पल
समेटकर ले जाती है
हर पल मेरे सपनों को
सजते – संवरते इरादों को
हर पल मेरे अरमानों को
मेरे दिलकश नजारों को
और पीछे छोड़ जाती है
आंसुओं के शैलाबों को
डूब जाता हूँ पर साँसें
नहीं डूबती, चलती हैं
आपकी नजरों के इशारे
आपकी जुल्फों के सहारे
खो जाता हूँ वादियों में
जहाँ कोई न होता
सिवाय आपके और मेरे
लफ्जों का सिलसिला
खुबसूरत फूलों की जैसी
कोई क्यारियाँ किसी बाग़ के
हमारी निगाहें टिक जाती है
चाँद से खिले हुए आपके
चेहरे पर जो एक दाग है
तलाशता हूँ और भटक जाता हूँ
गर्म – गर्म उछ्वासों में जो
थम – थम कर आती हैं
रूक कर भी,रूक नहीं पाती हैं
अनवरत आती – जाती है
जैसे कोई घड़ी हो खुशनुमा
घड़ी की तरह टिक – टिक
कि जैसे आहट हो कोई
जानी – पहचानी कि जैसे
दिल की धड़कन हो या कोई
पायलों की छम – छम हो
मधुर लय सुर व ताल जैसे
कोई संगीत हो गूंजती हुई
किसी महफ़िल में या जैसे
गीत हो आपकी लबों से
शर्माते हुए सकुचाते हुए
अपने आप में सिकुड़ते हुए
कि जैसे कोई कशिश हो
या कोई दर्द हो जुबाँ तक
जैसे आती हो आपकी पर
लबों की जाल में फंसकर
रह जाती है, फड़फड़ती है
मगर निकल नहीं पाती है
जैसे कोई बेताब परिंदा हो
आप नहीं कह पाती है कि
आपको मोहब्बत है मुझसे
जानता हूँ जी नहीं सकती
वगैर मेरे उच्छवासों के पर
मुझे कोई संकोच नहीं अब
न ही कोई हिचक ही अब
जो बात है मुझमें वो बात
मैं दबा नहीं सकता अब
कहे वगैर रह नहीं सकता
मैं आपकी तरह कोई युवती
या कोई नारी नहीं कि
कह न पाऊँ जो बात अब
दिल में है बता न पाऊँ अब
खौफ है मजहब रोड़े न बन जाये
और खुली हवा में जी न पाये हम
तब जीवन उस परिंदा जैसा ही
ठहर जाय यहीं तो अपना सा है
उड़ जाय कहीं तो सपना सा है |
–END–
रचयिता : दुर्गा प्रसाद |