दोनों बंधे हुए इस ज़िंदगी से ,
फिर भी उड़ने को पंख पसारें ,
कभी बंद पिंज़रे से दुनिया देखें ,
कभी कनखियों से एक-दूसरे को निहारें ।
कभी बनाएँ महल सपनों के ,
कभी उन महलों में आग लगाएँ ,
कभी रेत की दीवारों पर ,
चढ़-चढ़ कर हम शोर मचाएँ ।
कभी ख़्वाबों को हक़ीक़त एक मान ,
ख़्वाबों में ही गुम हो जाएँ ,
कभी फिर हकीकत में लौट ,
अपनी-अपनी धुन रटते जाएँ ।
कभी मजबूरियों की खातिर ,
मिलने से भी वंचित रह जाएँ ,
कभी अवसर का लाभ उठाकर ,
अवसर को ही गिनते जाएँ ।
कभी पूछते एक-दूजे से सवाल ,
कभी सोचते सिर्फ नए ख्याल ,
कभी ख्यालों को सच करने में ही ,
खड़े कर देते ना जाने कितने बवाल ?
कभी रूठते एक-दूजे के संग ,
कभी गिरने लगते हैं एकदम ,
कभी नजदीकियाँ और बढ़ाएँ ,
कभी दूरियों को गले लगाएँ ।
कभी सुनाएँ व्यथा निराली ,
कभी पिलाएँ प्रेम रस प्याली ,
कभी ना मिलने के वादों को निभाएँ ,
कभी मिलने पर भावुक हो जाएँ ।
कभी बताएँ अपने बंधनों का बंधन ,
कभी बताएँ कि खुले हैं अब थोड़े से हथकंगन ,
कभी दें आसपास का ब्यौरा ,
कभी खिले तनहा होने पर ये चेहरा ।
कभी फूलों की एक सेज़ सज़ाएँ ,
कभी खुद काँटों के बिस्तर बिछाएँ ,
कभी अपनी वफाओं का दंभ भरें ,
तो कभी बेवफाई का शोक मनाएँ ।
कभी इस जनम का शुक्र मनाएँ ,
कभी अगले जनम के वादे निभाएँ ,
कभी एक-दूसरे की दोस्ती पर ,
बिन कारण ही रीझे जाएँ ।
कभी तठस्थता को जीवन में उतार ,
लगा देते ये जीवन नैया आरपार ,
कभी बीच भँवर में डूब ,
ढूँढे पतवार , बाँध जीने के मंसूब ।
कभी कटे पंछी की भाँति ,
बेबस और लाचार बन जाएँ ,
कभी ऊँचे नीलगगन पर ,
पहुँचने के सपने सजाएँ ।
दोनों बंधे हुए इस ज़िंदगी से ,
फिर भी उड़ने को पंख पसारें ,
कभी बंद पिंज़रे से दुनिया देखें ,
कभी कनखियों से एक-दूसरे को निहारें ।
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