The poem is about leaving home in search of happiness and independence.The poem in a way expresses grief over the restrictions one faces in their own homes.The poem is the first part of a trilogy about the journey from leaving home to finding one’s true path in life, which forms a firm base for an enlightening future.The poem is written from the point of view of a woman whose desires and independent thoughts usually get drowned in the male dominated society.
सवारी कभी स्कूल से ,
कॉलेज या दफ्तर से,
बाजू की दुकान से ,
कही किसी स्थान से,
आज भी मचती है खलबली
जब मैं घर को चली !
सुबह से शाम तक,
थकान से आराम तक,
बारिश से सूखे तक,
उजाले से अंधियारे तक,
समय की बात है भली
फिर भी मैं घर को चली !
घर बन गया मकान है,
सिर्फ रह गया अपमान है,
चोट रह गया अवशेष है,
कष्ट देना ही सबका उद्देश्य है,
अब कहाँ जायेगी ये पगली?
घर को नहीं,अब घर से चली!
समय के संघर्ष में,
काँटों की चुभन में,
आंसू भरे रूदन में,
अपनो के गैरपन में,
कही रह न जाये ,मेरे जीवन की गाठ अधखुली
घर को नही,अब घर से चली !
मैं उड़ान भरूँगी,
सबके लिए नहीं अपने लिए!
अपनी राह चुनूँगी,
सबकी तरह नही,अपनी तरह!
अपनी कदर करूंगी,सिर्फ अपनों की नही
डटकर खड़ी रहूंगी ,फिर गिरकर ही सही!
यह जीवन अब भी है असमंजस की गली,
तब भी मैं घर को नही,घर से चली!
फिर क्या हुआ अगर,
सबने मुँह फेर लिया,
जो बाकी था,
उसे झूठला दिया,
देखो ध्यान से सब,
आज़ाद हूँ मैं अब !
लक्ष्य केवल मेरा है,
स्वावलम्बन का सवेरा है!
आज हूँ ठान कर निकली,
अब घर को नही,घर से चली!
लक्ष्मण रेखा है लांगी,
फिर भी मैं नहीं अभागी!
नए जीवन के सृजन में स्वयं को झोंक दूँगी,
हर विपत्ति को आड़े हाथ लूँगी!
आओ मुझे अपना कहने वालो,
अपना घर अब तुम्ही संभालो!
नही चाहिए ऐसा घर ,जहाँ रहकर मगर;
कभी मैं तुम्हारा हिस्सा नहीं बन पायी!
लेकिन यह किस्सा जरूर बनेगा;
अब यह समाज ही मेरा घर होगा!
इन मनुष्यो को वह दे पायी,
जो तुम्हारे लिए थी करती आयी!
तो मान लूँगी की कर गुज़री,
जो करने चली थी;
कहीं ,किसी और गली को मैं चली;
घर को नहीं ,अब घर से चली!
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