इंसानियत और आदमियत
रो रही थी इंसानियत बैठी एक दिन दरिया के साहिल पर
बह रहा था लहू उसके जख्मो से
हमने पास जाकर पूछ लिया
अरे क्या हुआ जो ऐसे तुम आंसू बहा रही हो
भीगी सी कुछ थकी से पलके उठाकर कर
कुछ देखा इस तरह से उसने मुझको
कि पूछ रही हो जवाब हमारे सवाल का हमी से
कराहती हुई रुलाई सी उसकी फूट पड़ी बोली
मर चूका है इंसान हर आदमी के जेहन से
मना रही हूँ मातम अपनी ही मौत पर
ये सुन बेजुबान और बेजान से हम रह गये
आदमियत और इंसानियत का फर्क तो समझे
पर खुद को क्या जाने अब सवाल बिन जवाब के ही रह गए
खोये खोये गुम से कदमो से चलते हम गए
बेचैन से हो गए जब दोराहे पर आकर रुक गए
समझ न आये अब किधर जाए
एक रास्ता घर तो एक शमसान जाए
खुद को टटोलते हम वहीँ बस खड़े रह गए
इंसान है हम या आदमी ये उलझन सुलझाएं कैसे
देखा कुछ और राहगीर भी चले आ रहे है
सोचा कुछ तो इनसे भी जान ले
पास से होकर गुजरा जैसे ही वो काफिला
सब मुझे खुद के ही प्रतिबिम्ब नज़र आये
वो भी मैं ही थे और एक मैं भी उन जैसा
सोचा अब इस उलझन का जवाब मिलेगा
खुद के ही आत्मचिन्तन से
न कोई मुझे समझायेगा न मैं किसी को
ये इंसानियत का पाठ है जो आईनो में अपने अक्स को देखकर
खुद को ही सीखना होगा
इस मन की इस नियत की धुल भी धोनी होगी खुद को
इस नज़र का स्वार्थ भी प्रयाशित के आँसुओ से बहाना होगा
प्यार सम्मान में सबको दूँ शायद ये ही अब खुद को इंसान बनाने का रास्ता होगा।
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