ऊँचे उठने की चाह में ,
उस मुकाम पर हम चले जाते हैं ,
जहाँ बस्ती तो नज़र आती है,
मगर बस्ती के लोग खो जाते हैं।
ऊँचे उठने की चाह में ,
कश्ती भंवर में उतर जाती है,
लहरें नाव को तो बचा लाती हैं ,
मगर नाव में सवार लोग डूब जाते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
जंगल में आग लग जाती है ,
पेड़-पौधे झुलस कर फिर से हरे हो जाते हैं ,
मगर भागते हुए लोगों की जान चली जाती है ।
ऊँचे उठने की चाह में,
भगदड़ शहरों में मच जाती है ,
शहर ज्यों के त्यों बसे रहते हैं ,
मगर शहरों के लोग कुचल जाते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
रेगिस्तान की रेत गर्म हो जाती है ,
रेत पर ऊंट तो खड़े रह जाते हैं ,
मगर लोगों के पाँव तप जाते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
बादल उमड़ -घुमड़ कर बरसने को भर जाते हैं ,
बादल तो बरस जाते हैं ,
मगर उनके तले खड़े लोग भीग जाते हैं।
ऊँचे उठने की चाह में,
भंवरा फूलों पर मंडराता है ,
भंवरे को तो फूल पकड़ लेते हैं ,
मगर उस भंवरे से लोग डर जाते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
मंजिल करीब आने लगती है ,
मंजिलें अड़चन भरी होती हैं ,
मगर उन्हें हटाने की तरकीब हम लगाते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
पैसे की कीमत हम घटाते हैं ,
पैसा फिर भी हाथ से निकल जाता है ,
बस हम हाथ मलते नज़र आते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह में,
बर्बाद कितने लोग हो जाते हैं ,
बर्बादी का दौर गुज़र जाता है ,
और वो अपने बीते हुए कल पर अफ़सोस जताते हैं ।
ऊँचे उठने की चाह करके ,
हम एक अपराधी से बन जाते हैं ,
अपराध हद तक किया जाए तो मुमकिन है ,
नहीं तो अपराध से बर्बाद हो जाते हैं ।
आज ऊँचे उठने की चाहत में ,
हज़ार ख्वाब दिल में पल जाते हैं ,
मगर ख्वाब उन्ही के सच हो पाते हैं,
जो ख़्वाबों को हकीकत से जोड़ पाते हैं ।।
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