“कन्यादान’– “महादान” ….
कहते हैं- ज्ञानी-विद्वान ,
कर दो पीले, बेटी के हाथ ,
पूरे हो मन के, सब अरमान |
“गंगाजी” में नहाकर आयो …
अपने मन में ख़ुशी मनाओ ,
पाल-पोस कर बड़ा किया था,
सौंप दिया अब दूजे धाम |
बाप की किस्मत, फिर से चमकी…
माँ की भी,सरदर्दी छूटी….
बेटी चली गयी ससुराल …
रहना पड़ेगा अब, वंही हर-हाल |
बेटी के मन को,जान सका न कोई ….
नए घर में बेचारी, बनाकर रसोई ….
जब थक कर याद करती ,अपने माँ-बाप को …
तो दुःख-सुख बांटने वाला भी ,मिला न कोई |
धीरे-धीरे रंग बदलते …
ससुराल वालों के तेवर बिगड़ते ,
बात-बात में ताने कसते ,
जा सकती हो वापस, अपने घर के रस्ते |
जब बात उससे ,सही न गयी ,
तो मन में ठानी ,कि अब हो गयी अति …
बाँध कर अपना बोरिया-बिस्तर ,
लौट चली बाबुल कि गली |
घर कि चोखट पर,जाकर देखा…
पापा के गुस्से को, आते देखा…
माँ कि भी थी ,कुछ व्यथा निराली …
की क्यों लौट आयी ,फिर से बेटी हमारी ?
उसके दर्द को किसी ने, न जाना …
बस देने लगे सब,उसको ताना ….
कि बचपन से ही, उसे आता है न निभाना ….
आज हो गया पूरा,ये भी सपना पुराना |
तुमसे हमें अब, कोई “मोह” नहीं है ….
“कन्यादान” किया है तुम्हारा ….
“दान” का मतलब, समझो जरा तुम….
जिसे देकर न बचता है, कोई रिश्ता हमारा |
सुनते ही वो , अवाक रह गयी ….
“बेटी’ तो छोड़ो ,”वस्तु” बनकर सिर्फ रह गयी ,
झूठा हो गया आज सारा ,वेड-पुडान हमारा….
जो “कन्या’ को “वस्तु ‘ बनाकर रखता है ,तमाम उम्र सारा |
दान किया माँ-बाप ने, तो “वस्तु” बना दिया ,
कहते थे जिसे “कन्या’,उसका “दान” करा दिया….
गर पहले पता होता कि ,ये शादी नहीं “दान” है मेरा ,
तो रह लेती वंही, जहाँ पर हो रहा था “अपमान” मेरा |
पर इतना जरूर कहूँगी इन् समाज के ठेकेदारों से …..
कि शादी के धारणाये बदलो, अब बदलते हुए विचारो से …
गर कहते हो कि -करते हो सच्चा प्यार ,अपनी “कन्या” से …..
तो “कन्यादान” न देकर ,”कन्या सम्मान ” करो अपने उज्जवल हाथों से ||
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