खुलने की प्रतीक्षा
प्रतीक्षा में घुलते हुए बार बार वो छलक आना चाहती है
वो ये भी चाहती है कि उसके घर का जो बंद कुंआ है जिसमें वो रोज पूजा करते
हुए एक लोटा जल डालती है उसे भी बरसात में खोल दिया जाऐ,
आखिर वो भी तो बरसात में भीगने की इच्छा रखता होगा !
वो अपने पिछले दिन, महीने,साल खुली छत पर रोज अलगनी पर कपड़े फैलाते हुए
तुलसी के पौधे से बातें करते हुए तुलसी से पूछती है
घरेलू होना ही पूज्य क्यूँ है भला, जबकि मैं भी तो शादी के बाद उन शुरुआती
दिन, महीने, सालों में खुद को वैसे ही रख सकती थी जैसे पिछले मौसम थी
फिर खुद से खुद को ही जवाब देती हुई मुस्कुराते हुए कहती है,
सब ठीक है, सब ठीक हो जाऐगा शुरु शुरु में ऐसा होता है
धीरे-धीरे इसकी आदत हो जाऐगी पल्लू संभालना आ जाऐगा !
प्रतीक्षा को रोज घर के मंदिर में रखते हुए
अपने लिए वो एक नया काम ढूंढती है जो फिर कुछ घंटों में खत्म हो जाता है
और काम के खत्म होने पर वो मंदिर रख आया प्रतीक्षा
फिर से उसके पलकों में चिपक आता है!
दिन ,महीने, सालों में वो झङती जाती है झङती जाती है
तुलसी के नये पत्ते आते जाते हैं और जब कभी तुलसी का पौधा मर जाता है तो
कोई पंडित आकर गमले में नया पौधा लगा जाता है
इस क्रम में वो भी मरते जीते बूढ़ी हो जाती है !
न बंद कुंऐ के नसीब में बारिश होती है और न ही प्रतीक्षा में घुलती
सबके समक्ष उसका छलकना होता है बस एक दिन
अचानक उसके गिनती में से दिन,महीने,साल की गिनती रुक जाती है
फिर तेरह दिन उसके ईश्वर के समक्ष कोई दीया नहीं जलाता तुलसी जल के बिना अधमरी हो जाती है
कुंऐ के भाग्य का एक लोटा जल उसे नहीं मिलता !
इस तरह वो तमाम उम्र अपने खुलने की प्रतीक्षा करती हुई एक दिन खो जाती है !
###