क्या मिला तुम्हे ?
मुझे इस तरह से नाकामयाब करके ,
क्या मिला तुम्हे ?
मुझे यूँ बेवजह बदनाम करके ।
तुम ऐसे ही कह देते ,
कि आज मेरे मन की इस चाह को रखना ,
तुम ऐसे ही कह देते ,
कि मेरी हुकूमत को ना तुम नज़रअंदाज़ करना ।
मगर इस तरह से गिरा कर मुझे ,
यूँ किसी के सामने ,
क्या पाया तुमने ज़रा बताओ तो ,
जब मैं खुद ही ना खड़ी हो सकी …… आज अपने पाँव पे ।
क्या मिला तुम्हे ?
मेरी इज़्ज़त को यूँ तार-तार करके ,
क्या मिला तुम्हे ?
अपनी छोटी सी जीत को आर-पार करके ।
बहुत अफ़सोस है आज मुझे शायद ,
अपने कर्मो के लेखे-जोखे पर ,
जो पल-पल गल रहा है केवल ,
किसी और के सपनों को सँजोने पर ।
मगर तुमने इस बार भी मुझे गलत समझा ,
क्योंकि तुम्हारा पुरुषार्थ तुम्हे टिकने नहीं देता ,
एक स्त्री के उभरते विचारों को ,
अपने समक्ष रुकने नहीं देता ।
मैंने ना कभी स्वप्न में सोचा था ,
कि इस क़दर तुम मुझे धोखा दोगे ,
मैंने तब क्यूँ नहीं अपने स्वप्नों को रोका था ?
जब तुम अपने झूठे वादों से मेरा ह्रदय खँगोल रहे थे ।
मैं आज भी तुम्हारी जीत पर ,
अपने मातम का जश्न मनाती हूँ ,
तुम्हारी ओछी हरकतों से खुद को ,
गहराई में धकेल जाती हूँ ।
मुझे अब इस चारदीवारी की ,
भीतरी सतह से भी डर लगता है ,
एक अंदर आते हुए प्रकाश को नग्न आँखों से देख ,
सब स्वप्न झूठा सा लगता है ।
मैं जानती हूँ कि मैं यहीं ,
इस गर्त में ढेर हो जाऊँगी एक दिन ,
बस चंद अलफ़ाज़ मेरे यहाँ तब जीवंत होंगे ,
जिन्हें पलकों पर किसी के समेट जाऊँगी एक दिन ।
ना जाने तब तुम्हे क्या मिलेगा ?
जो आज शायद मिला है ,
यूँ ही भरपूर घावों को कुरेद कर किसी के ,
अपने मन में जीत का एक दिया खिला है ।
तुम जलाओ इस दीप के दिए को यूँही ,
मुझे हर बार अब तुम्हारी ……… नई चाल से डर लगता है ,
जिसमे तुम तानाशाही दिखा ……… खुद को सही साबित करके ,
मुझे कुचल कर अपने पाँवों तले ………. आगे बढ़ते ।
क्या मिला तुम्हे ?
यही सवाल बार-बार आज मुझे …… कुछ लिखने पर मज़बूर करे ,
फिर मुझे लगा कि हो सकता है ………. आज तुम्हे मिला हो ,
एक दिल~ ए~ सुकून …… जिसकी तुम हर पल तकते हो एक चाह ……… अपने मन में धरे ॥
***