कोई बात करे मुझसे क्या
खेलोगे- कूदोगे मुझसे और
और बनोगे नबाव रंक से
मैंने कहा कौन सा खेल
सभी में खर्च-वर्च होते हैं
है नहीं मेरी औकात कोई
तब क्या करोगे, पढोगे
ऐसा तो, होगे खराब तब
क्या करेंगे, बोल मेरे मित्र
आओ खेलें, खेल कबड्डी
आओ खेलें, खेल कबड्डी
कोई आगे कोई है पीछे ,
कोई दौड़े तो कोई भागे
कोई पकडे तो कोई छोड़े
पैरों को,कोई हाथ को मोड़े
खेल-खेल में कोई जीते तो
कोई हारे, पर दुःख न माने
जीते तो इन्हें पूजे समाज
राष्ट्र करे इनका गुणगान
गाँव करे, घर करे सम्मान
माँ – बाप का नाम बढाए
भाईयों से गले मिले तो
बहनों से राखी बंधवाये
पत्नी को बाँहों में समेटे व
दिल की बात अपनी बोले
फूस का घर अब न रहेगा
घर की जगह महल होगा
गाडी – मोटर सब होंगे अब
हर रोज घुमने हम जायेंगे
तुम होगी पास में बैठी पर
हॉर्न बजायेंगे जब ससुराल
सासू को लाने हम जायेंगे
तुम उतरोगी रानी जैसी तब
हम राजा जैसा चाल चलेंगे
साली दौड़ी आयेंगी तीनों
छोटकी, मझली, बडकी तब
आँगन में ही कैसे नहीं हम
खेलेंगे तब खेल कबड्डी तब
सासू जी भी आ जायेगी और
कहेंगी हम अब न खेलेंगे खेल
न खेलेंगी अम्मा! अनर्थ होगा
हमें छोड़ कहीं, अकेला जाएगा
तब फिर लौट कभी न आयेगा
बेटी की बात समझ गयी माँ
फेंटा कसी और उतर गयी तब
खेल शुरू हुई जमके इतनी
सासु जीत गयी और दामाद
दामाद की हार हुई, हार हुई
तीनों सालियों ने चुटकी ली
माँ को जीता दिया, जीत हुई
जब जीजा को धुल चटा दी
गाडी व जीजी यहीं रहेंगी अब
वे साईकल पर लौट जायेंगे
वही हुआ जो होना था जब
पत्नी को छोड़ दिए वहीं पर
गाड़ी लेकर चल दिए तड़के
सुबह उठे सब , जीजा खोजे
न जीजा मिले , न गाड़ी ही
लेटर मिला पड़ा हुआ जी
खूब खेलो, खेल कबड्डी अब
माँ से , जीजी से , बहन से
जीतो हारो मुझे सरोकार नहीं
अब किसी से प्यार नहीं
धोखे से सबने मुझे हराया है
अपना था, वो अब पराया है
–END–
रचयिता: दुर्गा प्रसाद |