मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ ,
अंदर ही अंदर कहीं ………. टूटती सी जाती हूँ ।
मेरे भी अंदर थी छिपी ………. एक अनोखी प्रतिभा कहीं ,
जिसको ऊपर उठाने की चाह में ……. मैं भी थी जी रही यहीं ।
मगर उस प्रतिभा का …… इस रूप में ऐसा हनन होगा ,
ये ना सोचा था मैंने …… कि मेरे अपने ही द्वारा इसका दमन होगा ।
मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ …………..
सोचा था बंधके संग उनके …… मैं नए सपनों की बुनियाद धरूँगी ,
कुछ उनकी ,कुछ अपनी ………. प्रतिभा का और निखार करूँगी ।
मगर मेरी प्रतिभा पर ………. हर बार सवाल उठने लगे ,
उनसे आगे कहीं निकल ना जाऊँ ……. इस डर से टिमटिमाते दीये बुझने लगे ।
मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ …………..
धीरे-धीरे मेरा हुनर एक ……सम्पूर्ण पतन पर आ गया ,
एक पर कटे पंछी की भाँति अब ………. पिंजरे में क़ैद हो समा गया ।
मैं फड़फड़ाती रही ………. उस गृहस्थ पिंजरे की दीवारों में ,
अपने हुनर की आहुति को ……. रोज़ और जलाती रही चूल्हे के अँगारों में ।
मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ …………..
समय बीता और तब मुझे …… वक़्त के साथ समझ आया ,
जब ताने और छींटाकशी से ………. मेरे दामन पर भी दाग आया ।
मैं पैसे-पैसे को मोहताज़ बन ………. उनके आगे अब गिड़गिड़ाने लगी ,
अपनी नासमझी पर अब ……. गश खा-खाकर तपन मिटाने लगी ।
मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ …………..
मगर अब उस हुनर में …… वो बात बाकी नहीं बची थी ,
फिर से महल बनाने को ………. केवल राख की दीवार सजी थी ।
मगर मेरी अंतरात्मा तब भी ………. ना मानने को थी तैयार कोई हार ,
इसलिए चोरी-चोरी , चुपके-चुपके से ही ………. रोज़ बनाती थी अपने हुनर की एक नई दीवार ।
मैं अपने हुनर की बर्बादी पर …… अक्सर अश्क़ बहाती हूँ …………..
कभी-कभी मेरा हुनर भी कहीं …… अँधेरे में तीर चलाता था ,
लेकिन उस छोटी सी कामयाबी पर ही ………. उनके चेहरे का रँग उड़ा सा जाता था ।
इसलिए मैं अब हालातों से समझौता कर ………. मान चुकी हूँ अपनी हार ,
क्योंकि ये एक स्त्री का हुनर है ………. जिसे पुरुष कभी नहीं करेगा स्वीकार ।।
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