Its not just a poem i write, its an appeal to the mankind to wake up! The aim of one should be happiness for all, and the sorrows that are must be shared, i believe this is the humanity!
Lets us not be divided by the cast,creed,religion and color, and let us fight not over these trivial things because no matter how important these may or may not be, surely its not more important than EXISTENCE in peace and harmony.
i am delighted to present to you this poem…..
1. मनुष्यता
पुष्प जो सुगंध दे, धरा को आलम्ब दे,
पराग निस्वार्थ भाव से, स्निग्ध आनंद दे,
काँटे कठोर हैं तो क्या पुष्प का अलंकरण करें,
धर्म की वेदी पर कर्म का अनुसरण करें,
कुंठित है अब सभी वे राग सौंदर्य के – २ ।। 1 ।।
विहंगमय, जो था कभी निस्वार्थ भाव जीव में – २
रहा नहीं ,कि था कभी, वो प्रेम आज द्वन्द्व में,
है नहीं कहीं रही वो आत्मशांति की छटा – २
घटा है जो छटी नही, घटित हुआ जो अंजबी,
है चीर कर जो चीर को, ये पीर दी जो लाँछनीय,
ये वासना भरा समा, समा गया जो अर्थ में – २
अर्थ का अनर्थ कर खो गया जो गर्त में – २ ।। 2 ।।
यों मनुष्यता ही खो गयी जब मनुष्य के ही गर्भ में,
भेद क्या रह गया कहो, मनुष्य जानवर में,
यहाँ लहू भी फँस गया रंगभेद जाल में,
पिपासा खून की रही, नीर अब विष बना,
विवश नही था कभी मनुष्य इस कुकृत्य को – २
कर्म की खोज में भटक गया है धर्म से,
धर्म को अधर्म का लिबाज ओढ़े छल रहा,
निष्छल ह्रदय में घर बना, अब है पाप पल रहा – २ ।। 3 ।।
क्रोध भी अशांत है, तृष्णा और उग्र सी – २
हँस रहा मनुष्य में , जानवर है जो अभी,
नयन तेरे निहारते यों मुक्ति की आस को – २
बेडियाँ जो हैं बँधी, मनुष्य के विनाष को,
चमन तेरे खिल रहे अमन में आस्था लिए – २
खण्ड – खण्ड हो गई, अखण्डता व्यथा लिए,
गूँथ कर सुमन सभी कंठ तेरे वार दूँ – २
रुष्ठ जिंदगी को मै प्रेम की बयार दूँ ।। 4 ।।
जाग जा कि अब यही की ना हो देर और भी – २
पथ है श्वेत सामने तेरे, तो खोजे अन्धकार क्यों?
स्वयं अधर्म पालकर, तू करता हाहाकार क्यों?
छला गया कभी तुझे, सम्भल जा राह में – २
है नहीं कि वो मनुष्य, थक गया प्रयास में,
प्रयासरत रहें सभी कोटि कष्ट ही मिलें,
स्वर तेरे ना थमे, भले ही आत्मा रुंध हो,
विरुद्ध हो सभी परिस्थितियां ही क्यों, हौंसले दमन न हों ।। 5 ।।
समय अभी है जाग जा कि निद्रा आज तोड़ दे,
सामर्थ्य ला, कर विवेचना, तू मन को आज झकझोड़ दे,
अनर्थ हुए जो आज तक तो क्या, सही का प्रयत्न अब करो,
जो शर्म से है जूझती, उस माँ में अब गौरव भरो – २ ।। 6 ।।
धरा जो मातृभूमि है, कर्मभूमि जानकर – २
जो अब करो या कर मरो, न कुछ कभी हो धर्म से पृथक
“जीव का इक लक्ष्य हो यहीं – २
जीव सब रहें सुखी, जो दर्द हो तो बाँट ले,
है मनुष्यता यही “- ३
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✍ -सुमंत कुशवाहा