” कभी जो तूने “
“कभी देखा है तूने खुले आसमां
के तले बाँहे फैला के अपनी ,
वो नशा आसमान का जो तुम्हे चूम लेता ।
कभी देखा है तूने सोती रातो मे वो
भीगे चाँद के तले , तारों की छावं मे ,
फर्श पे पड़े हुए आँखे मूँद कर ,
उसकी शीतलता मे जो तुम नहाये होते ।
कभी देखा है तूने उन समुन्दर की लहरो पे ,
किरणों को अठखेलियां करते जो
तुझे छू कर निकल जातीं ।
बिखरी हवाओं मे खुश्बू फिज़ाओं की,
महसूस की है तूने कभी ,
जो तुझे अपने स्पर्श से गुदगुदा जाती ।
कभी बहते हुए झरनों के शोर को ,
तू ख़ामोशी से सुन ,
गुनगुनाते अहसास से ,
जो तेरा तन-मन जरा भीग जाये ।
कभी देखा है तूने बादल से ,
बारिश की बूंद का इठला के,
निकलना धरती मे समाना ,
वो माटी की सोंधी महक जो ,
तेरे मन को सुगंधित कर जाये ।
नहीं देखा इन्हे , तो तूने क्या देखा ?
ये जीवन के झमेले तो हैं बहुत से ,
भूलकर सब कुछ थोड़ी देर ही सही ,
छुपा है जिंदगी का राज जिनमें ,
कभी इन लम्हों को तू जी भर जीके तो देख ।।”
” बोलती ख़ामोशी “
“वो तेरी खामोश निगाहें ,
तू चाहे कुछ कहे न कहे ,
पर तेरी खामोश निग़ाहों से ,
सब बयाँ हो जाता है ।
दर्द जो इतना सीने मे ,
छुपाये रहते हो ।
मुस्कुराकर क्यूँ ग़मों को ,
यूँ ही पीये जाते हो ।
छलक जाने दो आज ,
इस दर्द को इन निग़ाहों से ,
बह जाने दो आँसुओं के ,
सैलाब को रोको न इन्हे आज तुम ।
भूलकर अपने माजी (अतीत ) को ,
किनारे पे तो आना होगा ।
लौट कर तो देख ,
इक मौका तो दे तू मुझे ,
तेरे दामन को थामने का ।
बस इक इशारा भर कर दे तू मुझे ,
तेरे हर ग़मो की धूप को ,
छांव मे बदल दूंगा मैं ।
तुझको तुझसे खुद मे छुपा लूंगा मैं ।।”
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मेरी कलम से……..