निराश जीवन से प्रेरित मन तक
कविता दो भागों में बांटी गयी है. प्रथम भाग में मन बहुत निराश है, हर तरफ बस तम की चादर ही दिख रही है. मन विशाल सागर में जैसे निरुदेश्य बिना मांझी के बहा चला जा रहा हो. खुद के जीवन को ले कर मन में संदेह उत्पन्न होने लगता है. मन में विचारो एक द्वन्द सा चलता है,फिर प्रेरणा का सृजन होता है,जो की भाग दो में बताई गयी है. निराशा से निकल कर मन प्रकाश के झरने में नहाता है. स्वप्रेरणा ही जीवन उर्जा में वृद्धि करती है, आत्मविश्वास का चप्पू लिए, आशा को अपना मांझी बना इस जीवन के सागर में मन उन्मुक्त हो बहता है. ये बात भी निज-मन में ध्यान है की जंग जो दुनिया से करनी है वो प्रतिशोध नही मोहबत की है.जो भी शिकायतें इस दुनिया से मुझे थी,उन सब कमियों को स्वयं दूर करना है. निराशा से आशा का सफ़र निम्नलिखित पंक्तिओं में निहित है.दिल से पढियेगा !
निराश जीवन से प्रेरित मन तक – भाग 1
है कठिनाइयों से भरी डगर मेरी यहाँ,
सतत चलता रहा हूँ , जाने मंजिल है कहाँ?
एक अबूझ पहेली सी मुझे ये जीवन प्रतीत हो आए
जितना समझूँ उतना ही उर,मस्तिष्क पर पर्दा छा जाए!
मैं भी उतना ही जिन्दा,ये न इस दुनिया को समझ आए,
इन होठों से न मुखौटों की हंसी अब हंसी जाये
कुछ पाने की तड़प में धू-धू कर मन जलता जाये
जाने क्यूँ ये दुनिया अरमानों को कुचली चली जाये?
एक कोई कारण तो बताओ,क्यों यहाँ जिया जाये?
यूँ दिनकर की किरणें निराशा जो खा जाए,
निज उर में हर नई सुबह की शाम हो आए,
शहर महत्वकान्छाओं का, कोई सपना कैसे बुना जाए?
हथेलिओ में मुझे तम सृजित भविष्य का अक्स दिख जाये.
इस सिसकती आहों को काश कोई तो सुन जाए
तन्हाइयों की महफ़िल में दिल के सन्नाटें गूंजे जायें
दुनिया में मिलते है लोग,कोई जो इंसान दिख जाये
अरे क्या चलूं अलग चाल,कोई भीड़ ही मुझे न अपनाये
एक कोई कारण तो बताओ,क्यों यहाँ जिया जाये,
क्यों यहाँ जिया जाये?
निराश जीवन से प्रेरित मन तक – भाग 2
पर बिछी है बिसात जो,आज अंतिम द्युत हो जाये,
नही हाथ कुछ खोने को,किस्मत से आज टक्कर हो जाये.
क्या बोलेंगी ये लकीरें मेरे आने वाले कल को,
हाथ मेरे खंजर है,इनके ही भविष्य का फैसला हो जाये!
निस्तेज सूर्य हटा,अपनी आँखों का नया सूरज उदित किया जाये,
राख से हुआ हूँ जिन्दा,फना होने की नई परिभाषा गढ़ी जाये
सिसकते लबों से रण की हुंकार तो भरी जाये
पर,आज अपनी हंसी से हर गम भी ख़ुशी पा जाये
हसरतों को हकीक़त बनाने,क्यों न हर सपना जिया जाये!
निर्ममता से ठोकरे जो ये दुनिया जड़ी जाये
बन प्रेम का मसीहा,एक नया गांधीवाद बहाया जाये
दिल में हुई हर नई सुबह का सत्कार किया जाये
की हर निराशा भी आज खुद का स्वाद चखी जाये!
क्या,कहाँ जीवन की मंजिल,ये कौन समझ पाए,
क्यों न इस कारवाँ में ही महफ़िल बसाई जाये
चलो आज किसी प्रतिबिम्ब को एक इंसान तो दिख जाए
मेरी चाल देख पीछे भीड़ खिची आए!
की हसरतों को हकीक़त बनाने,क्यों न हर सपना जिया जाये
क्यों न हर सपना जिया जाये!!
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