रुबरु तुमसे हम बोलो तो ………. कैसे हों भला ?
इधर शाम उधर रात का साया ……… फैला है बहुत घना ।
टूटी शाख के पत्ते में ………. ज़िंदगी नहीं है बाकी ,
क्या मिलेगा तुम्हे भला अब , ऐसे जाम से ………. जिसका हो ना कोई साक़ी ।
रुबरु तुमसे होने का ………. जब भी सोचें हम ज़रा ,
इधर छाँव उधर धूप का साया ……… फैला है बहुत घना ।
हज़ार मिन्नतें तुम्हारी ठुकराकर ………. हासिल ना कुछ हुआ ,
बहुत सोचा , मगर इन क़दमों पर ………. पहरा है पड़ा हुआ ।
रुबरु तुमसे होने को ………. अब ना बाकी कुछ बचा ,
इधर दरिया उधर सागर की लहरों का कलरव ……… फैला है बहुत घना ।
एक उम्मीद से ये दिल तुम्हारे संग ……… बँधता सा जाता है ,
फिर अगले ही पल अपनी मौत का ………. एक खुला मंज़र नज़र सा आता है ।
रुबरु तुमसे होने को ………. जब भी निकलें हम ज़रा ,
इधर तपती रेत उधर अँगारों का शोला ……… फैला है बहुत घना ।
सच कहें तो भी ………. दम यूँही निकलता है , अपना तो ,
झूठ बोलें तो , कश्मकश के धुएँ से ………. ये मन फिसलता है क्यों ?
रुबरु होने को मत कहिए … हमें आज तुम ज़रा ,
इधर जाम उधर जिस्म का साया ……… फैला है बहुत घना ।
ज़हर हमने भी पीने की अब ……… खाई है क़सम , तुम समझो ना ,
क़ैद~ए~हयात में खुद को नज़रबंद करने की ………. दुआ पाई है अब , तुम देखो ना ।
रुबरु होने को एक सपन मान .. हमने भी तो , खुद को दिया जला ,
इधर नींद उधर कफ्न का साया ……… फैला है बहुत घना ।
दिल~ए~बयान को पेश करते हैं ……… अब तुम्हारे सामने यहाँ ,
कि फिर ना कभी कहिएगा हमें … कि रूबरू हों तुमसे हम यहाँ ।
रुबरु अब तो ज़माने से हम .. ख़्वाबों में होंगे सदा ,
इधर सुबह उधर दिन का उजाला ……… फैला होगा जब कभी वहाँ ॥
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