शहर की दास्ताँ
यह शहर इंसान को १०*१० के कमरे मैं कैद कर के रख देता है ,
अपनों को अपनों से अलग कर के रख देता है ,
हर कोई आता है यहाँ, अपना घोसला बनाने,
उसे अपने ही सपनो की उड़ान में जकड के रख देता है ,
यह शहर इंसान को १०*१० के कमरे मैं कैद कर के रख देता है ,
अपनों को अपनों से अलग कर के रख देता है ,
वो ठहाको की हंसी को एक झूठी मुस्कान में बदल के रख देता है,
2-2 रुपयों के लिये हर किसी का ईमान बदल के रख देता है,
जरूरत पड़ने पर कोई साथ भी नहीं आता साहब,
यह शहर दुनिया से इतना अलग कर के रख देता है
यह शहर इंसान को १०*१० के कमरे मैं कैद कर के रख देता है ,
अपनों को अपनों से अलग कर के रख देता है ,
सुबह की चिडियो की चहचहाट को अलार्म क्लॉक में बदल कर रख देता है,
वो गाँव के मेलो और झूलो को , ट्रेड फेयर मैं तब्दील कर के रख देता है,
वो गाँव की चौपाल को सिनेमा हॉल में कैद कर के रख देता है,
हद तो तब हो जाती है इस बदलाव की ,
जब दादा – दादी से लगाव को मम्मी पापा तक सीमित कर के रख देता है
यह शहर इंसान को १०*१० के कमरे मैं कैद कर के रख देता है ,
अपनों को अपनों से अलग कर के रख देता है ,
इन जगमगाती हुई सड़को पर चाँद की रोशनी कही खो जाती है,
वो पीपल की छाँव के आगे AC की हवा भी मात खाती है,
फिर भी यह शहर इंसान को अपना बना के रख लेता है,
यह शहर इंसान को १०*१० के कमरे मैं कैद कर के रख देता है ,
अपनों को अपनों से अलग कर के रख देता है
–END–