चलते-चलते थक गई थी …….. सोचा , मैं भी थोड़ा विश्राम कर लूँ ,
अपने बहते हुए भावों को …… किसी और सिरे का साथ दे दूँ ।
पर मेरी वो भूल थी …… जो उस सिरे को मैंने छोड़ दिया ,
जिस सिरे से किया था जीना शुरू …… अब उसी सिरे से मुँह मोड़ लिया ।
मैं खुश थी बहुत ……. अपनी बदली दिशा से ,
फिर मुड़ के ना देखा ……… उस छोड़ी हुई जगह पे ,
नई दिशा , नई लहर के बीच …… जो अब मैं घिरने लगी थी ,
रात दिन बस उसी दिशा में …….. चलने की धुन में लगी हुई थी ।
कि एक दिन अचानक याद आई …… अपनी बीती हुई उस ज़िन्दगी की ,
पलट के देखा जो कुछ पन्नो को …… तो सीख मिली एक नन्ही कली की ।
जो खिल रही थी मेरे ही लिखे …… कुछ शब्दों को गुनगुनाकर ,
और कह रही थी , “चल उठ …… कहाँ है तू ?” …… बढ़ जरा फिर मुस्कुराकर ।
मैं सहमी सी , कुछ डरी सी …… धम्म से गिरी अपनी नादान समझ पर ,
कि क्यूँ थी मैंने छोड़ दी , वो दिशा …… जो थी मेरी डगर पर ।
कैसे मैंने ये सोच लिया …… कि चलो थोड़ा विश्राम कर लूँ ,
गर विश्राम ही मेरी एक गति थी …… तो क्यूँ नहीं मैं उससे खुद को तर लूँ ?
एक दिशा बदलने से क्या भला …… दूसरी दिशा कमजोर पड़ जाती ?
जो दिशा हमने पहले खोजी थी …… वही दिशा तो दूजी दिशा है लाती ।
विश्राम कुछ समय का ही सही …… पर मेरे भीतर तो तूफ़ान ले आया ,
ये सोच कि मैं विश्राम कर लूँ …….. मेरा कितना समय वो अपने संग बहा ले पाया ।
अब समझ आया मुझे …… कि विश्राम हराम है जीवन में ,
चलते-चलते गर थक गए हो तुम …… तो मंद गति ही दूजा विकल्प है इस जीवन में ।
पूर्ण विश्राम से सो जाती है चेतना …… जहाँ से लौट आना फिर है कठिन ,
पर मंद गति सदैव याद कराती …….. वही पथ जो था थोड़ा छिन-बिन ।
मैंने आभार व्यक्त किया , उस नन्ही परी का …. जो बन के आई मेरे जीवन का दूत ,
और चल पड़ी फिर उसी दिशा में …… जिसे छोड़ने की मैंने की थी एक भूल ।।
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