फर्श के टुकडो से चुभन तो होती है
दीवारों में दरारें आ गयी है
शायद यह अब तक रोती है
अब तो आइने की यादों में भी
हम धुन्दले हो चुके है
अब तो परदे भी खिडकियों से आती रौशनी
के सामने हिम्मत खो चुके है
ना जाने क्यूँ इन सबकी अब आदत सी हो चुकी है
छोटी छोटी मुस्कानों के पीछे आँखों की नमी खो चुकी है
इन सबके सहारे ज़िन्दगी ठीक ही चल रही थी
पुरानी यादों को पीछे छोड़ें रफ़्तार पकड़ चुकी थी
तब
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
तब
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
वोह आवाज़ थी लकड़ी को हाथों से थपथपाने की
जो मुझे सहमा गयी
मुझे समझ नहीं आ रहा था क्या करू
एसा लगा
बीते वक़्त की दूरी कुछ घट सी गयी
मेरा शरीर स्तब्ध था
इंतज़ार कर रहा था एक और दस्तक का
पर यह मन
व्याकुलता के सागर में डूब रहा था
और सोच रहा था
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
फिर न जाने कैसे
पैरों ने पहला कदम बढ़ा लिया
उत्सुकता की सीमा को साहस की नाव से पार कर लिया
पर जब यह मन सम्मोहन से जग उठा
तब हम से पूछने लगा
जब कदम बढ़ा ही लिया है
तो क्यूँ असमंजस में डूबे रेहते हो
जब दिया जल ही दिया है
तो क्यूँ रौशनी से बैर रखते हो
जवाब में भीतर से एक आवाज़ आती है
की यह लिखावट इस पन्ने पर हमारी नहीं है
यह तो निशान है जो पिछले पन्नो से इसपर छपी है
कुछ लम्हों के लिए ऐसा लगा
की वोह पन्ना फिर से गया
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
धीरे धीरे दरवाज़े तक हम पोहच ही गए
सवालों के जालों में उलझ से गए
बस , कुछ फासले ही थे
हथेली और उस कड़ी के बीच
के तभी
एक और दस्तक ने हमे रोक दिया
और फिर
धड़कन और दस्तक का मेल हो गया
पर इस बार
एक और आवाज़ सुनने में आती है
जैसे कोई कलाई में चूड़ी खनखनाती है
इच्छा हुई की खिड़की से झांक ले
की वह कौन है जिसका दीदार हमे होना है
पर तकदीर ने कुछ इस तरह खेल खेला
जैसे हम कोई खिलौना है
खिड़की से सटा कई साल पहले रखा
लकड़ी का एक लट्ठा था
इसलिए हमे आज नज़र जो आया
वोह उनका सिर्फ एक दुपट्टा था
इस तरह नसीब हमे निराशा की अग्नि में झोंक गया
और हम फिर सोचने लगे
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
जैसे ही दरवाज़ा खोला हमने
देखा की एक चेहरा
कुछ जाना पहचाना सा
होठ उनके हलके मुस्कुराते हुए
जैसे कोई खूबसूरत सपना सा
आँखें उनकी बालों के झूमर की आड़ से कुछ पूछ रहे थे
और हम नादान उनमे खोये
खुदह के इस राज़ को बूझ रहे थे
तब एक कागज़ का टुकड़ा
जिसपर कुछ लिखा था
उन्होंने हमे दिखलाया
तो सुनहरी धुप पर भी छाया काला घाना साया
और फिर उनके मुख से मीठी सी आवाज़ आई
कि यह पता कहाँ का है
क्या आप यह जानते है
बदले में हमने उन्हें राह दिखाई
जिसपर वोह चली गयी
पर अब
प्यार से बढ़कर कोई पीढ़ा नहीं
यह हम सच मानते है
इसलिए अब हम दरवाज़ा बांध नहीं रखते
किसी की राह हम नहीं ताखते
बल्कि
आज घडी का कटा फिरसे वहीँ आ गया
फर्क सिर्फ इतना है
कि आज यह प्रश्न मन में नहीं
कि
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
न जाने कौन इस दरवाज़े पर दस्तक दे गया
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