मैं सुहागन मरुँ – Hindi poem – Wish of an Indian woman on Karva Chauth
मैं सुहागन मरुँ ….हाँ ….मैं सुहागन मरुँ ,
हर साल “करवाचौथ” का व्रत रखकर ,
सिन्दूर भरकर माँग में,
बस यही छोटी सी एक कामना करूँ ,
कि मैं सुहागन मरुँ ।
न आता मुझे …….खुद से दुनियादारी निभाना,
न लोगों की बातें और उनके सवालों को छिपाना,
तुम्हारे साथ की….. जनम -जनम कामना करूँ ,
मैं सुहागन मरुँ ….हाँ ….मैं सुहागन मरुँ ।
न था जब कोई रिश्ता तुमसे, न था तब कोई एहसास दिल से,
पर सात फेरों और साथ वचनों के साथ ,
समझ आया इस बंधन का साथ,तभी कहती हूँ मन से ,
कि मैं सुहागन मरुँ ….हाँ ….मैं सुहागन मरुँ ।
आप कहते हो कि सीखो खुद से काँटों पर चलना,
जब भी कोई मुश्किल हो तब उसका डटकर सामना करना ,
न जाने कब ये हाथ छूट जाए,इस जीवन नैया में साथ छूट जाए,
नहीं समझ आता मुझे तुम्हारी नसीहतों का पन्ना ,
बस इतनी ही अर्ज है भगवन से कि मैं सुहागन मरुँ ।
आज भी परमेश्वर कहलाता है “पति “,
मानो तो सब कुछ है और न मानो तो करो किसी भी हद तक अति ,
वैधव्य का होना या न होना ये सब है भाग्य की नियति ,
पर अपनी सोच को दृढ़ रखकर तो ये कह ही सकती हूँ ना,
कि मैं सुहागन मरुँ ।
सुहागन मरना भी जीवनकाल को सिद्ध कर देता है ,
वैधव्य के दुःख से स्त्री को हर लेता है ,
जिसने कभी सजाया था “मांग” को ,उसके कंधों पर चढ़कर मुक्ति लेता है ,
अपनी -अपनी सोच है जिसे ये मन हरदम गति देता है …कि मैं सुहागन मरुँ ।
करूँ कोई भूल भी जो मैं अनजाने में कभी ,
नादान समझ कर माफ़ कर देना मुझे आप यूँही ,
अपने जीवन काल में “दिया” बनकर आपको प्रकाश दूँ ,
नाम लेकर चारों पहर बस यही कहती रहूँ ……कि मै सुहागन मरुँ ।
सुहागन जब स्त्री मरे तो दुनियावाले उससे जलें ,
हाँ मुझे भी वही ईष्र्या देखकर जो सुकून मिलें ,
यही सोचकर गद -गद हर पल ,ये दिल कहे हर पल कहे ,
कि काश मैं भी सुहागन मरुँ ,इस जनम को कम से कम सफल करूँ ।।
__END__