वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ,
भरे बाज़ार में तेरे अश्क़ों का रँग ……… यहाँ बिकता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
रँग अश्क़ों का बिकने के लिए ……… यहाँ मर्द हैं काफी ,
हमारे दर्द के एहसास का ठौर-ठिकाना भी …………. यहाँ टिकता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
हम तो पैदा ही हुए हैं ………. ज़ख्म छुपाने के लिए ,
रिसता हुआ लहू भी इन ज़ख्मों से ……… उसे दिखता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
खुद से ही हमारे दर्द को दबा के ………. उसने कहा ,
कि उसके दर्द से ज्यादा और कोई दर्द ……… यहाँ मिलता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
ऐसे अनजान चेहरों से ………. ये दिल जला सा जाता है ,
जिन्हे कद्रदानों के कद्र का हुनर भी ……… यहाँ दिखता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
अस्थि-पिंजर सा हो गया है ………. अब ये अंजाम ~ ए ~ महल ,
उन्हें इस अस्थि-पिंजर में क्यूँ रिस्ता दर्द ……… भी दिखता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
हम बिक गए बीच-बाज़ार ………. उन्हें बचाने की ख़ातिर ,
उन्हें हमारी कीमत का ज़िक्र ……… भी फबता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
हमने माँगी ना थी उनसे अपने ……… लहू की कीमत ,
उन्हें उस लहू में भी अपने गुमान का ……… चेहरा दिखता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
डूबते हुए हमने हाथ बढ़ाया था ………. उस रोज़ उनकी ओर ,
उनके मुँह फेरने के भावों का रँग भी ……… हमसे छिपता नहीं ।
वो पूछते हैं दर्द कहाँ है ………. ज़ख्म तो दिखता नहीं ………..
ज़ख्म दिखाकर अगर दर्द बयाँ होता ………. ए साहिब ,
तो ज़ख्म देखकर भी वो कहते कि दर्द तो इसमें ……… होता नहीं ।।
***