कुछ नम, कुछ ग़म – ३
फिर एक सुबह
सूरज की पहली किरणें बंद आँखों को धीरे से सहला कर मुझको जगाईं ।
खुली खिड़कियाँ, उनपर लहराते परदे, और पर्दों के बीच से नरम गरम रौशनी।
एक पल के लिए मुझे लगा की सब कुछ ठीक है ।
उठकर बैठा और चारों ओर देखा ।
कुछ भी ठीक नहीं था ।
तू नहीं, तेरा साया नहीं, तेरा वजूद ही नहीं ।
बची हैं सिर्फ बेजान दीवार पर तेरी तसवीरें और टूटे दिल में तेरी यादें ।
कहाँ गयीं वह सुबह की पहली चाय और चाय की तासीर बढ़ाती तेरे होंठों पर तबस्सुम की बिजलियाँ?
कहाँ गयीं मेरे सफ़ेद बालों को सहलाती वे नाज़ुक उंगलियां?
कल तक ज़िन्दगी रंगीन थी
कल तक हर सुबह उम्मीद जगाता था
कल तक हर दिन तेरी खिलखिलाहट से भरा था
लेकिन आज?
ज़िन्दगी बेरंग होगई
सुबह पर नाउम्मीदी छागई
हर दिन तेरी खिलखिलाहट से महरूम होगया
फिर एक सुबह हुई…
तन्हाई
गनीमत है तन्हाई को जान नहीं.
जो बेजान हो कर भी काट सकती है,
अगर जान होती तो?
विड़ंबना
ऐ मेरे शरीक-ए-हयात, यह कैसी विड़ंबना है?
तू ही दर्द है और तू ही दवा है! तेरा ही ग़म है और तेरा ही सहारा है!
मेरी ज़िन्दगी की नूर तू है और अंधेरा भी तूने ही भरा है!
मैं मैं नहीं तू तू नहीं, मैं और तू मिल हम बना
हम जिऐ, हम चले; हम हंसे, हम रोये; हम बोये, हम पाले;
शितिज पर गोचर इन्द्रधनुश के रंगों को चुराकर
हमने अपना छोटासा आशियां सजाया
अचानक यह कैसी गाज गिरी, सुन्दर आशियां राख बनगया
मुड़कर देखा चारों ओर, तू नहीं, तेरा साया भी नहीं
तेरे बग़ैर मैं अब मैं नहीं, हम अब हम नहीं, शून्य बनगया है.
वह नदी, और नदी किनारे हरियाली
वह आसमान, और आसमान पर उड़ता बादल
वह रास्ता, और रासते पर चल्ती बैल गाड़ी,
सांस के लिये हांफता वह बैल,
हलकीसी टन-टन करती उस्के गले की घंटियां
सब कुछ सलामत है अपनी अपनी जगह
पर तू नहीं, तेरा वजूद नहीं, तेरा साया नहीं
बस रह गया मैं, खाली, खोक्ला, निराश, और उदास
एक बेरंग और दिशाहीन जीवन को ढोते हुऐ
ख़ुश्क आंखों में पुनर्मिलन की आशा लिये, तेरे बुलावे के इन्तज़ार में
इस विड़ंबना का मतलब समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि
तू ही दर्द है और तू ही दवा है? तेरा ही ग़म है और तेरा ही सहारा है?
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… श्याम सुन्दर बुलुसु