कुछ नम, कुछ ग़म – ४
क़त्ल-ए-आम
सुना है वे नज़रों से क़त्ल-ए-आम करते हैं
इश्क़ किया है हम ने, मौत से नहीं डरते हैं
नाज़ और प्यार
उन्हें नाज़ है अपने प्यार पर, हमें प्यार है उनके नाज़ से,
दोनों मजबूर हैं अपनी अपनी फितरत से.
तेरी नज़र
तुझसे नज़र जो मिली तेरा बंदा बन गया।
तेरी नज़र-ए-इनायत जो हुई तेरा ग़ुलाम बन गया।
तू नज़रों से ओझल जो होगयी तेरा दीवाना बन गया।
तेरी नज़रों का क़ुसूर जो ज़िंदा लाश बन गया।
आशिक़ी
वे आँखें ही क्या जो दीदार-ए-हुस्न-ए-यार की न हों
वे कान ही क्या जो सखी की खिलखिलाहट को सुने न हों
वह नाक ही क्या जो प्रेमिका की खुशबू को सूंघी न हो
वे हाथ ही क्या जो माशूक़ के बदन को छुए न हों
वे पैर ही क्या जो महबूब की गलियों में भटके न हों
वे बाहें ही क्या जो माशूक़ को आगोश में ली न हों
वे होंठ ही क्या जो गुलबदन के होंठों को चूमे न हों
वह इन्सान ही क्या जो महबूब के संग का लुत्फ़ उठाया न हो
वह ज़िन्दगी ही क्या जो आशिक़ पर लुटी न हो
वह ख़ुदा ही क्या जो ऐसे इन्सान को पैदा किया हो
इश्क़ की इंतहा
मुद्दत के बाद इश्क़ की इंतहा को पाया
लुत्फ़ उठाने दो दोस्त
कौन जाने इस ओर फिर आना हो न हो |
तेरी बेरुखी
दिल से बेदिली, रुख से बेरुखी,
कमबख्त, यह इंसान है कब सुखी?
तेरा साथ
ग़म-ए-फुरक़त-ए-महबूब शदीद है | फिर भी खुदा से यह ग़म बार बार मांगूंगा |
तेरे साथ ज़िन्दगी बिताने का मौका जो बार बार मिलेगा |
दोहा
दोहा इतना छोटा होता है कि अरबों में भी मेरे जज़्बे समाते नहीं, मगर
दोहा इतना बड़ा होता है कि सारी कायनात को अपनी आगोश में लेले.
हिजाब-ओ-हिसाब
हिजाबों का हिसाब मांगता है तू, ऐ नादाँ,
यहाँ हर हिसाब हिजाबों में छुपा है ।
… श्याम सुन्दर बुलुसु