१). ज़िंदगी ने कहा।
कर खड़ा तूफ़ानी रात में,
ज़िंदगी ने कहा दीये जलाने को।
रखकर सामने काँटों का ढेर,
कहा फूलों की सेज सजाने को!
हूँ आसमान की ओर आकर्षित मैं,
यह जानती है ज़िंदगी मेरी।
पर जकड़ कर ज़मीनी हक़ीकत में मुझको,
कहा सपनों का पंख लगाकर
उड़ जाने को!
कर खड़ा तूफ़ानी रात में,
ज़िंदगी ने कहा दीये जलाने को!
पर मंज़िल तक पहुँचने के लिए,
मैं उम्मीद को अपना हमसफ़र बनाये रखूँगी।
है खौफ़ नहीं अब छालों का,
चाहे कह दे ज़िंदगी तपती राहों पर
खाली पैरों से कदम बढ़ाने को!
कर खड़ा तूफ़ानी रात में,
ज़िंदगी ने कहा दीये जलाने को!
२). ज़रा अपने साथ मुझको आने तो दो।
हो चुकी है रात
और सामने है रास्ता लंबा बहुत ।
इस सूनी सड़क के सफ़र पर,
सुनो! ज़रा अपने साथ मुझको आने तो दो..
चमकता हुआ चाँद है गगन में चल रहा,
पर हम-तुम तो हैं खड़े यहाँ इस ज़मीं पर!
देखो! अँधेरे में अकेले मैं लड़खड़ा न जाऊँ कहीं,
ज़रा मुझे भी संग अपने ही कदम बढ़ाने तो दो..
ज़रा अपने साथ मुझको आने तो दो..
हर धुंधले मोड़ को हम छोड़ चलेंगे,
हाथ थाम एक-दूजे का,
रोशनी से सराबोर किसी मंज़िल की ओर चलेंगे।
होगी सुबह जल्द ही,
देखना तुम!
तब तक मुझे भी हमारे प्यार के सपनों का सूरज
जगाने तो दो..
ज़रा अपने साथ मुझको आने तो दो..
३). माँग रही है।
हक़ीकत के रास्ते में खोयी हुई ज़िंदगी,
न जाने किस अंजान मुसाफ़िर से कोई ख़्वाब माँग रही है।
शोर में डूबे शहर के बीचों बीच बसे,
अपने घर में पसरे सन्नाटे का
जवाब माँग रही है।
इन गलियों में जहाँ हम ताउम्र यूँहीं घूमते रहे,
आज यहीं दो-चार पल चलने का मेरे कदमों से जाने क्यों हिसाब माँग रही है।
हक़ीकत के रास्ते में खोयी हुई ज़िंदगी,
न जाने किस अंजान मुसाफ़िर से कोई ख़्वाब माँग रही है।
है अकेला चलना तो
कभी-न-कभी,
सभी को यहाँ!
पर कुछ दूर तक
मंज़िलों की खोज में
निकलने के लिए,
न जाने क्यों किसी का साथ माँग रही है।
हक़ीकत के रास्ते में खोयी हुई ज़िंदगी,
न जाने किस अंजान मुसाफ़िर से कोई ख़्वाब माँग रही है।
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