मैं हूँ लंगूर, मैं हूँ लंगूर: This poem is about the feelings of an ape(monkey) who has lost his way and entered the township which is nothing but jungle of concrete.
वनों, बागों , बागीचों से ,
भागता , फिरता पहुंचा हूँ ,
कंक्रीट के जंगल में ,
भटकता इतनी दूर।
मैं हूँ लंगूर, मैं हूँ लंगूर।
पेड़ों की डालों पर चढ़ता ,
झूलता, झूमता उन झूलों पर ,
इतराता , इठलाता , मटकता चलता,
सुगंध लेता उन फूलों पर,
लय में नाचता जैसे मयूर।
मैं हूँ लंगूर, मैं हूँ लंगूर।
तेरे इशारों पर नाचा
मैं तो हूँ सीधा – साधा ,
कूदता, फांदता और हंसाता,
अपना मजाक बना डाला।
क्या मेरी अदायें भायी मेरे हुजूर ?
मैं हूँ लंगूर , मैं हूँ लंगूर।
राम की सेना का अंग बना,
लड़ा क्रूर रावण से युद्ध,
मेरा बल अतुलित ब्याप्त है ,
आसुरी शक्तियों के विरुद्ध।
जहाँ भी अत्याचार हुआ,
मैं जा पहुंचता हूँ जरूर।
मैं हूँ लंगूर , मैं हूँ लंगूर।
वन उजाड़ डाले मानव ने ,
और उजड़ते ही जा रहे ,
कहाँ रहूँ मैं , कैसे रहूँ मैं ,
समाधान कोई भी नहीं पा रहे।
क्यों मनुष्य बन गया क्रूर?
मैं हूँ लंगूर , मैं हूँ लंगूर।
अब मैं जाता नहीं राम
की कथा जहाँ होती है ,
पीले पत्तों के बीच मौन,
मेरी ऑंखें बस यूँ रोती हैं।
जी लिया बहुत अब मेरे राम,
अब चला यहाँ से बहुत दूर।
मैं हूँ लंगूर , मैं हूँ लंगूर।
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हरियाली के गावं : This poem is about the feelings of a tree which has dried . But it is still standing within the greenery all around.
यति जैसे खड़े हैं हम,
हरियाली के गावं।
मैं भी कभी हरा – भरा था,
देता था मैं छाँह ,
बच्चे झूलते डाल पकड़कर ,
जैसे पिता की बाँह।
मेरी जड़ें भी खूब गड़ी थी,
धरती के अंदर तक,
इसीलिये हिलते नहीं कभी,
अंधड़ में मेरे पांव।
यति जैसे खड़े हैं हम,
हरियाली के गावं।
असमय ही अब उम्र ढल गयी,
पोषण कहाँ हो रहा मेरा ,
पत्ते पीले झड़े जा रहे ,
पंछी को नहीं ठाँव।
यति जैसे खड़े हैं हम,
हरियाली के गावं।
कितना सुखी होता था मैं,
फलों का देकर अवदान ,
सुग्गे भी अब नहीं आ रहे ,
कौओं की नहीं काँव – काँव।
यति जैसे खड़े हैं हम,
हरियाली के गावं।
दर्द कहूँ मैं किससे अपना ,
देने को अब कुछ भी नहीं है ,
जीवन रीता बीत जा रहा ,
अब करने को कुछ भी नहीं है।
तने खोखले होते जा रहे,
छाल भी तो अब नहीं रही,
जड़ें पड़ गयी ढीली अपनी ,
ठूंठ ही बस अभी बच रही।
इसीलिये अब नहीं रहना ,
शिथिल हो रहें पांव ,
देता हूँ मैं दुआ तुझे अब ,
हरा – भरा रहे तेरा गांव।
यति जैसे नहीं खड़े हैं हम,
हरियाली के गावं।
तुझे मुबारक , तुझे मुबारक ,
तेरा अपना गांव ,
तेरा हरियाली का गावं ,
तेरा हरियाली का गावं।
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— ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र, 3A, सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोग, मानगो, जमशेदपुर।
मेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग , पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट । टाटा स्टील में 39 साल तक कार्यरत । पत्र पत्रिकाओं में टेक्निकल और साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन । सम्प्रति जनवरी से ‘रूबरू दुनिया ‘ भोपाल से प्रकाशित पत्रिका से जुड़े है । जनवरी 2014 से सेवानिवृति के बाद साहित्यिक लेखन कार्य में निरंतर संलग्न ।
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