1- मन– मंदिर
मंदिर में हम सजाकर प्रतिमा
पूजा तो करते हैं दिन-रात,
मानवता का नाम लेकर सब
पृथ्वी को सुनाये धर्म की बात ll
सर्व 3त्सव बड़े उत्साह से मनाते आये
ईश्वर को खोजते हर जगाह !
आज मन का विश्वास हारे पर
आये तेरे शरण पाने पनाह l|
अरे तू ईश्वर को कहाँ खोज रहा
वो तो हैं तेरे ही भीतर,
अब तक न जाने कितने कह गये ये
पर हुआ न कोई लोगों में अंतर I
शत शत जर्जर हुए हजारों
लड़ाई को देकर धर्म का नाम
क्यों लोग यह भूलते चले
धर्म रक्षा ही है मानव का काम II
आज मानव हुए मानव का शत्रु
कटारिया तलवारों से लोगों का खून बहाकर,
उनकी अस्थियां प्रमाण हुए बर्बरता का
मनुष्य ने द्वेष कI ध्वज उठाया
आगे बढ़े कदम से कदम मिलाकर II
बुझ गई मंदिर में सारे जलते दीपक
जाने कौन सी उन्मत्त लहर आई?
मातृभूमि का ही हमने किया अपमान
बेचकर ईमान आदर्शों से मानव का नाम मिटाई II
ईश्वर ईश्वर पुकार कर हम
पद-मर्जित विवश लोगों को करते चले
मन ही है मनुष्य का सर्वोच्च मंदिर,
क्यों कलुष मन लेकर यह बात भूलते चले?
- ऐ गुलाब तुझे अलविदा
कलि की रूप में लिपटी थी कल रात तक
रजनी की चकाचौंध से दूर, छुपा था सौंदर्य तेरा
गुलाब तू आई सजकर, भास्कर की रथ पर चढ़
विस्तारित करते हुए चमन में सुगन्धित आँचल तेरा
तुझे देख रहा आज पृथ्वी सारा, निहारती तेरे रूप को
देख रहा समय का चंचल चक्र, बदलती हुई रात में दिन को ॥
एक पल में तू हैं अमर, दूसरी में तू क्षणभंगुर
वक़्त ने क्रूरतापूर्ण लिपट लिया तुझे सदा से
रोक न पाई ऐ मनमोहिनी आज भी अपने मृत्यु को
एक दिन की यौवन तेरी मुरझा गयी लालसा रहित जीवन से
पर भर की ये जीवा से ही , हो गयी दुनिया तुझ पर फ़िदा
अब आशाहीन स्वर में कह रही, ‘ऐ गुलाब तुझे अलविदा ‘॥