कविता-1
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मैं नन्ही सी गुड़िया
खुशियों की पुड़िया
सांसें कहां है रे
मेरी धड़कन कहां रे
मां के आंचल से निकली
धूल में फिसली
अंधेरा घना रे
अंधेरा घना रे
मैं नन्ही सी गुड़िया
खुशियों की पुड़िया
सांसें कहां है रे
मेरी धड़कन कहां रे
मां मैं ज़िद ना करूंगी
हर बात सुनूंगी
ले चल यहां से
मां ले चल यहां से
मैं पापा की बीटिया
एक मीठी सी टिकिया
ले चल यहां से
मां ले चल यहां से
मैं नन्ही सी गुड़िया
खुशियों की पुड़िया
सांसें कहां है रे
मेरी धड़कन कहां रे
मैं चीखी, चिल्लाई
मां को आवाज़ लगाई
आ जा यहां रे
मां तू आ जा यहां रे
मैं सहमी, डरी सी
अकेली जमी सी
रोती रह गई रे
मरती गई रे
मैं नन्ही सी गुड़िया
खुशियों की पुड़िया
सांसें कहां है रे
मेरी धड़कन कहां रे
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कविता-2
गुड़गांव के बादशाह खान अस्पताल में एक बच्चा है। इसके हाथों में चोट लगी हुई है। उसके पिता ने उसे कूड़े में फेंका और चले गए। ये सोचे बिना कि इस बच्चे का आगे क्या होगा। उसी के दर्द पर ये एक छोटी सी कविता है
मुझसे वो मेरा नसीब ले गया
खामोश ज़िंदगी अजीब दे गया
कहते हैं वक़्त बदलता है
इंसान बदलता है
तू जो बदला
सब कुछ बदल गया
हालात बदल गए
विचार बदल गए
तकदीर बदल गई
हाथों की लकीर बदल गई
नहीं बदली
उस ज़ख़्म की ताज़गी
तेरी याद सालती है
हर पल आज भी
वो जो दर्द है
ज़ब्त है दिल में
संभालकर रखा है
तेरे इंतज़ार में
पर वो भरोसा अब टूटने लगा है
सब्र का वो भरम छूटने लगा है
तू लौटेगा की नहीं
तू लौटेगा की नहीं
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कविता-3
अन्ना हज़ारे एक बार फिर अनशन पर बैठनेवाले हैं, उनके साथ भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हज़ारों आवाज़ें उठ रही हैं।
उसी पर एक छोटी सी कविता पेश है।
मेरे घर की खिड़की से आजकल ठंडी हवा आती है
लगता है शहर में कोई तूफ़ान आनेवाला है
एक नई तारीख़ से पुरानी आवाज़ उठनेवाली है
लगता है तख़्तों-ताज की शामत आई है
राम की धरती से इंकलाब की धूल उड़ी है
मुल्क़ की गलियां भी अब कुरुक्षेत्र लगती हैं
समंदर की लहरों में भी आफ़त की आहट है
अब ये जनता कामयाबी की राह पर निकली है
मेरे घर की खिड़की से आजकल ठंडी हवा आती है
लगता है शहर में कोई तूफ़ान आनेवाला है
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