1. वो शख्स
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया,
एक गुजरते हुए साल में नया साल बनकर आया ।
में तन्हाई में ढूँढा करती थी अक्सर जिस हाथ को ,
वो उस हाथ में मेरे लिए तकदीर लिखकर लाया।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया………
मैं हार कर ज़माने से लगी मायूसी को गले लगाने ,
वो उस मायूसी में मेरी जिंदगी को पढने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया……..
मैं बंद परिंदे की तरह एक साज़ गा रही थी ,
वो उस साज़ में मेरे लिए एक आवाज़ लेकर आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया……….
मैं मूँद पलकें अपनी अँधेरे में जा रही थी ,
वो उन बंद पलकों पर सपने सजाने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया…………
मैं धडकनों को काबू करके साँसों से लड़ रही थी ,
वो उन धडकनों को सीने में फिर धडकाने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया………
मैं होठों से लेने में डरा करती थी जिन लफ्ज़ों को ,
वो उन लफ्ज़ों को अपने कानों से सुनने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया……..
मैं टूट कर अन्दर से ज़र्रा-ज़र्रा हो चुकी थी,
वो उस ज़र्रे को भी सुहागन बनाने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया……..
सब कहते हैं कि “खुदा” होता है यहीं पर ,
वो उस “खुदा” में मुझको मेरा अक्स दिखाने आया ।
वो शख्स मेरे लिए मेरी पहचान बनकर आया,
एक गुजरते हुए साल में नया साल बनकर आया ।
2. वो “क्या ” है ?
वो “क्या ” है, मैंने उसे क्या बना दिया ?
अपनी कवितायों का एक “नायक” बना दिया ।
वो बचने लगा है अब, मेरी ऐसी मोहब्बत देखकर …..
मैंने उसे ताजमहल का “शाहजहाँ ” बना दिया ।
वो बनकर आया था एक दोस्त, मेरा दर्द बाँटने को ……
मैंने उसे उस दर्द का “मसीहा” बना दिया ।
वो साधारण सी सोच रखने वाला, एक आम आदमी है………
मैंने उस आम-आदमी को “खासम-ख़ास” बना दिया ।
वो क्यों मिला ,कैसे मिला ,ये एक अधूरी कहानी है ………
मैंने उसे उस कहानी का “कथाकार” बना दिया ।
वो तन्हाई में गर उठाएगा कभी,मेरी सोच पर सवालात ……..
मैंने जो लिया था उससे कभी उसे वो सब लौटा दिया ।।
__