Hindi Poem 1. शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
कैसे उन्हें पिरोऊँ मैं ?
“माँ ” की ममता सोच कर देखूँ तो …..
बिन आँसूं के रोऊँ मैं ।
जिसने ये संसार बनाया ,
उनके स्नेह से मन हरषाया,
उनकी गोद में सर रखकर ….
बिन नींदों के सोऊँ मैं ।
शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
कैसे उन्हें पिरोऊँ मैं ?
“माँ” का प्यार है ऐसा निराला ,
दुश्मन का सर भी है झुक डाला ,
ऐसी “माँ ” का लाल बनकर ,
बिन हीरे के दमकूं मैं ।
शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
कैसे उन्हें पिरोऊँ मैं ?
जीवन पथ की कठिन डगरिया,
पार हुई पकड़ “माँ” की उंगलिया ,
डूब जाऊँ तो भी नहीं है गम अब ….
बिन पतवार की नईया खेमे में ।
शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
कैसे उन्हें पिरोऊँ मैं ?
“माँ” की भक्ति में हैं चारों धाम ,
तन-मन में बसा हो जब उनका नाम ,
प्राणओं को निकलते हुए न हो दर्द ,
बिन मौत के साँसों को रोकूँ मैं ।
शब्द हैं थोड़े उनके आगे ……
कैसे उन्हें पिरोऊँ मैं ?
Hindi Poem 2. “माँ” का प्यार
“माँ” का एक प्यार ही मुझको इतना बार बनाकर लाया ,
वरना इस जीवन को मैंने सपनों में भी कभी न पाया ।
कैसे कह दूँ की “माँ” की ममता होती है अफसानों में,
इसके किस्से बन न सके अबतक ये बंद होती है तहखानों में ।
सारा जोबन गाल के उसने तन-मन से औलाद को सींचा,
उसी औलाद के धुत्कारे जाने पर अपने होटों को सदा ही भींचा ।
“माँ” ही जननी ,”माँ” ही देवी,”माँ” की ममता अपरमपार ,
जिस रूप में चाहोगे उसको उसी रूप में मिलेगा प्यार ।
तिरस्कृत हो समाज से वो फिर भी वात्सल्य की आस न छोड़े ,
चाहें बदल जाएँ बच्चे वो फिर भी उनसे मुँह न मोड़े ।
टुकड़ों में बाँट दिया “माँ” को एक “माँ” के पांच बेटों ने,
पर बाँट न सकी वो मरते दम तक उनमे से एक को भी दो टुकड़ों में ।
ऐसी “माँ” को नमन न हो तो अपने जीवन पर है धुत्कार ,
क्योंकि इस जग में लाने की खातिर हमको उसने पार की हैं न जाने कितनी दीवार ?
Hindi Poem 3. दुनियादारी के झमेले
बचपन में सोचा करती थी मैं ,
बैठ कदम्ब के पेड़ के नीचे,
कि “माँ” ही वो दौलत है मेरी ,
जो इतने स्नेह से मुझको सींचे ।
विद्यालय से झूठ बोलकर आ …..
जब मै कमरे में छुप जाती थी,
तब “माँ” ही मुझको समझाकर ,
प्यार से गले लगाती थी ।
ब्याह हुआ तो पराये घर जाने की ,,,,
“माँ” से ही एक नयी सीख मिली,
झगड़ा वहां पर कभी न हो मेरा ,
ऐसी उत्तम एक तरकीब मिली ।
बच्चों के लालन-पालन का …..
“माँ” ने दिया मुझे ऐसा ज्ञान ,
ताकि हर कदम पर मुझको मिले ,
नए घर में पूरा सम्मान ।
धीरे-धीरे ….चुपके-चुपके वो ….
दूर से बैठी रंग भरती रही,
और उसके जीवन काल की हस्ती,
बिन कुछ कहे ही घटती रही ।
और एक दिन वो काला दिन भी आया ,
जब “माँ” का चेहरा सदा के लिए मुरझाया,
उसके जाने के एहसास ने मुझको,
अब उसका स्नेह याद दिलाया ।
आज फिर उसी कदम्ब के पेड़ के नीचे …….
मैं सोच रही बैठी यूँ अकेले में,
कि क्यूँ मैं “माँ” तुम्हे पहचान न पायी,
इस दुनियादारी के झमेले में।
Hindi Poem 4. हमारी सोच के सवालात
आँचल में दूध लिए ………
आँखों से छलकता पानी,
सोच रही “माँ” बैठ सड़क पर ,
किसे कहूँ अपनी दुखभरी कहानी ?
बीती रात को बेटे ने उसके ……..
घर से बाहर निकाला ,
कि सह न सकेगा खर्च वो उसका,
अपनी कमाई का देके हवाला ।
न घर है अब कोई मेरा,सोच रही वो कहाँ जाऊँ ?
किसके घर जाकर अब , मैं अपना डेरा जमाऊँ ?
बचपन होता तो झूठ बोलकर,लोगों से मैं नज़र बचाऊँ ,
परन्तु इस उम्र में, सच बोलने का साहस कहाँ से लाऊँ ?
भूखे पेट वो चलती रही ……
किसी “वृधाश्रम” की तलाश में,
क्योंकि शहरों में ऐसा अक्सर होता है,
पड़ा था उसने किसी किताब में।
पहुँच कर आश्रम उसने वहाँ का द्वार जब खटखटाया,
तो हाथ में “फॉर्म” पकड़े एक कर्मचारी बाहर आया ,
बोला माताजी ये “फॉर्म” नहीं सिर्फ एक औपचारिकता है,
घर से बुजुर्गों को निकालना आम सी बन गयी, ये “हिन्दुस्तानी सभ्यता” है ।
सुनकर “माँ ” बोली उससे ,ये मेरे आँसू नहीं पानी हैं ……..
बेटा बहुत लायक है मेरा, ये ही सच्ची कहानी है ।
उसने मुझे नहीं निकाला ,मैं खुद से चली आयी हूँ ,
अपने जीवन- काल को ,समर्पित करने यहाँ आयी हूँ ।
वो “नादान परिंदा” मेरा, उड़ना अभी न जान सका….
अपने नीड़ की टहनी को, मेरे संग न बाँध सका ।
“भरत” ने भी क्या दुःख भोग होगा ,अपने “राम” के जाने से ,
मेरा बेटा छोड़ गया सब , मेरे यहाँ पर आने से ।
मोह नहीं उसे इस दौलत का ,मेरे लिए तड़पता है ……
मगर मेरा ह्रदय कठोर बड़ा ,जो हर पल उसे तिरस्कृत करता है ।
याद रखो मेरी अपने मन में ,ये छोटी सी एक बात ,
कि “हिन्दुस्तानी सभ्यता ” नहीं बदली ,बस बदल गए हैं हमारी सोच के सवालात ।
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