कितना तड़पी थी मैं कल रोज़ तुझे बुलाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
बार-बार बहाने से तुझे पैगाम दिया ,
हर पैगाम में अपनी बेबसी का ज़िक्र किया ,
कितना मचली थी मैं कल रोज़ तुझे पाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
तूने समझा कि ना समझा मेरा कोई इशारा ,
तेरा नहीं ये सब कसूर था मेरा सारा ,
कितना झगड़ी थी मैं कल खुद से तुझमे समाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
हज़ार राहें मुड़ने पर भी तेरी राह पकड़ी ,
तेरी चाहत में अपनी ढलती उम्र भी ढक ली ,
कितना सँवरी थी मैं कल रोज़ तुझे रिझाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
तूने जगाया था जो सपना इन आँखों में कभी ,
उस सपने को दिन में भी मैं अक्सर लेती हूँ यूँही ,
कितना बहकी थी मैं कल रोज़ उस सपन में जाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
हारकर जब भी मैं जाने लगती तब ही रुक जाती ,
एक इशारे की उम्मीद से ही खुद सिहर जाती ,
कितना सहमी थी मैं कल रोज़ तुझे बुलाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
अपनी जान पर खेलकर कितनी बार तुझे जवाब दिया ,
एक झूठी कहानी को हकीकत में बदलने का नक्शा तैयार किया ,
कितना उलझी थी मैं कल रोज़ तुझमे समाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
सोचा था अब नहीं आऊँगी तेरे फिर से करीब ,
मगर तू खींच ही लाया बदल कर मेरा नसीब ,
कितना रुकी थी मैं कल रोज़ तुझे बताने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
आईना तेरा जब देखा तो मैं ये जान गई ,
तेरी नीयत में कोई खोट नहीं तुझे पहचान गई ,
कितना गिर गई थी मैं कल रोज़ तुझे बहकाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
जाते-जाते हुए भी फिर से तेरा नाम पढ़ूँ ,
तेरी और मेरी कहानी को एक नया रूप धरूँ ,
कितना सीखी थी मैं कल रोज़ तुझे सिखाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।
कितना तड़पी थी मैं कल रोज़ तुझे बुलाने को ,
भीगे सावन की भीगी छटा में नहाने को ।।
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