उसने छूने से पहले इज़ाज़त माँगी ,
हमने चढ़ती साँसों से इज़ाज़त दे दी ।
उसने गिरने से पहले मोहलत माँगी ,
हमने अपने हुस्न की इबादत दे दी ।
उसके तमाम इशारे करते रहे हमसे , क्यूँ दगा ?
हमने तन्हाई की उससे इज़ाज़त ले ली ।
उसने तन्हाई में बहकाया था हमें , फिर जल-जल के ,
हमने तन्हाई में उसके साथ की शरारत ले ली ।
उसने कानों में लफ़्ज़ों को किया था तार-तार ,
हमने जिस्म की बेहयाई को किया आर-पार ।
उसने धड़कनों को जगा कर किया था बेशरम ,
हमने दिल ही दिल में खाई थी , उसके संग कसम ।
उसने वादा निभाने की हर मुरीद रखी ,
हमने उसके लिए अपनी जान , दाँव पर रखी ।
उसने गीत एक सुनाया हमें बेहोशी का ,
हमने पैगाम दे दिया उसे सरगोशी का ।
उसने रूह पर किया था अब हमारे कब्ज़ा ,
हमने रूह में किया था उसका सदका ।
उसने होठों पर रख कर के हाथ , एक शहनाई बजाई ,
हमने उन्ही होठों से उसको दी थी , एक रुसवाई ।
उसने जाने से पहले हमारी बेबसी को करार दिया ,
हमने भी अपनी बेबसी से उसके दिल को निखार दिया ।
उसने कहा कि अब है देखो , उसकी बारी ,
हम भी चल पड़े थे करने , एक नई तैयारी ।
उसने अपनी हुकूमतों से हम पर वार किया ,
हमने अपने जिस्म के हर हिस्से को शर्मसार किया ।
उसने हमारे जिस्म के तार पर बजाया , एक मधुर संगीत ,
हमने हर संगीत में उसके , उसको बेज़ार किया ।
उसने छूने से पहले हमसे जो इज़ाज़त ली थी ,
हमने उस इज़ाज़त को अब एक हँसी दी थी ।
उसने गिरने से पहले जो एक मोहलत ली थी ,
हमने उस मोहलत में उसको एक ख़ुशी दी थी ।
इज़ाज़त और मोहलत के इस खेल में ,
उसने और हमने रच डाली , एक प्रेम-ग़ज़ल ,
उसने जब इस ग़ज़ल पर अपने वजूद का , अधिकार माँगा ,
हमने उस ग़ज़ल को अपने नाम की इबादत दी थी ।।
***