शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
तेरे सामने ,
और ना ……… रुक सकी तब ,
शर्म से ………
वो रात हसीं थी ,
पैरों तले ये ज़मीं थी ,
सब बिखरा हुआ था समां ,
बिखरे थे अपने अरमां ,
पल की ख़ुशी पाकर ,
तेरे संग …… सिमट गई फिर ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
पूरे हुए थे ख़्वाब ,
जिनके लिए थे हम साथ ,
भीगे से थे तन और मन ,
भीगी थी वो रात ,
ना जाने क्यूँ ,
तुझे देख ……… घबराकर छिप गई मैं ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
कुछ पलों की थी मदहोशी ,
कुछ पलों की गर्मजोशी ,
कुछ पलों का था नज़ारा ,
कुछ पलों में सब खामोशी ,
होश जब सम्भले तो ,
खुद को तेरे सामने पाकर ……… डर गई मैं ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
ना जाने क्या हुआ था ,
लगने लगा तब सब नया था ,
तेरी हँसी ,तेरा सितम ,
सब कुछ बदला हुआ था ,
फिर अचानक ,
तुझसे रूबरू होकर ……… झिझक गई मैं ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
नैनों में तब बह गए ,
लाज के ढेरों आँसू ,
हिचकियाँ बाँध मैं ,
रो पड़ी हो बेकाबू ,
सूझा ना जब कुछ ,
तब ढँक लिया ……… अपना तन ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
ये शर्म ना होती ,
तो क्या होता ,
क्या सब तब यूँ ही ?
बिखरा-बिखरा सा होता ?
ये सोच अब मैं ,
ख्यालों को लाके ……… फिर से रुक गई ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
शर्म मेरी तब देखकर ,
तुम चले गए सब बंद कर ,
एक सहारा तब दिया तुमने ,
मेरी शर्म को देखकर ,
तेरा सहारा पाकर के ,
मैं संभली तब ……… धीरे-धीरे फिर ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
शर्म से ,
लिपट गई मैं ………. चादर से ,
शर्म से ………
तेरे सामने ,
और ना ……… रुक सकी तब ,
शर्म से ………
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