Uban ka Cancer: Hindi Family Story of a house wife who is fighting for balance between her inner self and her family,
अलका की नींद कुछ जल्दी ही खुल गयी ., या यूँ कहें कि उसे आज-कल नींद आती ही कहाँ ………?
िबस्तर से नीचे पैर रखने में ऐसा लगा कि…मानों मींलो का सफ़र करना हो ..ख़ैर ख़ुद को समेट वाॅशरूम गयी…अलका शीशे में देर तक स्वयं को निहारतीं रही ….स्वयं के लिये कोई अनुभूति ही नहीं …जैसे वह कोई सामान हो….िनर्जीव ,एक मशीन। उसने अपनी ज़िन्दगी स्वयं चुनी थी…अनुराग से पहली नज़र का प्यार….फिर परिवार की मर्ज़ी से शादी…जाॅब छोड़ने का निर्णय भी उसी का..वह अपनी माँ को दो पहियों में पिसते देख चुकी थी….उसके लिये जाॅब करना किसी स्त्री के अस्तित्व का परिचायक नहीं था।अ लका एक सुन्दर ख़ुशियाँे से भरा घर चाहती थी…और उसने जी भर के अपने सपने को पूरा किया…सास-ससुर साथ ही रहते……अलका उनकी लाड़ली …और उसके लिये वे माँ-पापा से भी बढ़कर..शादी के तुरन्त बाद आया घर का दीपक ….प्यारा सा कौतुक…।
सब बहुत अच्छा ….लेकिन कहतें हैं ना ज़िन्दगी बदलाव माँगती है….िवस्तार चाहती है और एक प्यास चाहती है़़ … अलका चाह कर भी प्यास,चाह ,बदलाव नहीं पैदा कर पा रही थी….उसके ख़ुशहाल जीवन में ऊबन के विषाणु अपनी जड़े फैलाते जा रहे थे और वह बिल्कुल बेबस….,कभी -कभी सोचती
कि पति-पत्नी के गहरे प्रेम के बीच ये ऊब कैसी…”कहीं उनके प्रेम में कोई खोट तो नहीं”।
इन दिनों वह प्रेम,रोमान्स,सेक्स,गृहस्थी सबको तराज़ू के एक पलड़े पर रखती और दूसरे पर इन सबके बीच िछपे ऊब के कीड़े को….दूसरा पलड़ा निर्दयी सा मुँह चिढ़ा रहा होता…वह अभी इन्हीं ख़्यालों में गुम थी कि कौतुक के रोने की आवाज़ आई…..उससे जा कर चिपट गई….वह उसे अपनी नन्ही -नन्हीं उँगलियाें से सहला रहा…उँगलियाँ कभी गाल को छूती ….कभी नाक ,कभी बालों को,कभी उसकी आँखों में उँगली घुसाने की नादान कोशिश करतीं…वह आँखें बंद कर सारा आनन्द अपने भीतर समेटने की कोशिश कर रही थी….इतना ज़रूरी काम था …मानों आज पानी की सप्लाई बंद रहेगी…और इसको जितना ,जहाँ हो सके भर लो….।
अनुराग कितना समझाते….प्यार से ,मनुहार से,उपदेश भी दे डालते ……”अलका ख़ुशियाँ बटोरो….आज में जियो”…..कभी हार कर कुछ उल्टा-सीधा बोल जाते….तब उन दोंनो के बीच एक गहरी उदासी फैल जाती। जिसका उपाय तो था बहुत ही सरल किन्तु हाथ से फिसल जाता……ज़िन्दगी बहुत सीधी सरल दिखती है और उसे समझने की कोशिश में लग जाओ तो…..भौतिक विज्ञान के किसी जटिल सूत्र की भाँति …पल्ले ही नहीं पड़ती बल्कि और उलझती जाती है।
अपने सारे प्रयासों के बीच फँसीं अलका टूट रही थी……..वही उबन,उदासी ……स्वयं को पकड़ने की कोशिश में स्वयं को फिसलते देखना…..।उसे मन करता कि वह भाग जाये कहीं…..दूर हिमालय पर ,मुम्बई के डिस्को -पब या बनारस की गुमनाम गलियों में स्वयं को खो दे…शायद स्वयं को पाना तब सम्भव हो जाये….अपने होने का मक़सद सामने था….लेकिन उसे देखना,छूना,अनुभूत करना असम्भव सा..।
अलका सबकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी ढूँढ़ने वाली साधारण सी भारतीय नारी…आधुनिक होते हुये भी जिसकी सोच “सब ख़ुश रहें” पर सिमट जाती….िफर अब क्या हुआ?
यही सब सोचने पर घड़ी पर नज़र गई…..बहुत समय हो चला था….उसे जल्दी-जल्दी घर के काम िनपटाने हैं…..शायद उसकी यही “निपटाने वाली प्रवृति”उब बन कर उसकी आत्मा में घर बना रही है..।आज उसको अपनी कुछ सहेलियों के साथ लन्च पर जाना है….उसे समय पर पहुँचना है।
शायद उनकी कोई बात उसे निकाल ले इस मकडजाल …।
इति,साधना,रूपम,रचना सब पहले ही पहुँच चुकी ….दरवाज़े में घुसते ही उनके ठहाकों की आवाज़ कानों में उमंग घोलने लगी…….इस उमंग को अपने अन्दर समेटने में कितनी मेहनत करनी पड़ रही है….यह सोच अलका अपने पर ही मुस्कुरा दी……धत् !!!
“आओ अलका ! हम सुखी लोगों के बीच दुखी मीना कुमारी…….वैलकम !!”….अलका सुनकर खिसिया गई।
सब शादीशुदा बाल-बच्चे वाले…..बल्कि सबकी शादी को पाँच साल से ऊपर हो चला था…..बस रचना ही बैचलर लाइफ़ के मज़े ले रही थी….उसके पापा को चिन्ता नहीं और रचना जैसी स्वतन्त्र लड़की को यूँ ही कोई पसन्द आ जाये…यह आसान नहीं । वह ज़िन्दगी से भरी हुई लड़की थी……एक बैंक में पी.ओ थी…..व्यस्त रहती….िजन्दगी को घूँट -घूँट स्वयं में समा लेना कोई रचना से सीखे।र
चना उसे समझाती कि “अलका तुम जो जीवन जी रही हो…..वह बहुत ख़ूबसूरत है……तुम सृजनकर्ता हो….सुन्दर घर,स्वस्थ ,सुखी परिवार ….कौतुक में संस्कार रोपती तुम…..तुम्हारी ज़िन्दगी के अलग मायने हैं”
अलका अपनी इस ख़ूबी को अनुभूत करने की कोशिश में लग जाती।
साधना और रूपम अपने बच्चों को साथ लाई थीं…अकेले रहतीं थीं तो किसके पास छोड़ती ….इति मस्त थी….. वह अपनी माडर्न सास की आम सी बातों को तरह-तरह के मसाले लगा सुनाने लगी….सबका हँसते-हँसते बुरा हाल था….इतने दिनों के बाद इतना हँसने पर अलका की आँखों में आंसू छलक जा रहे थे। सामने वाली टेबल पर एक हाई-क्लास प्रोफ़ेशनल महिला बैठी थी…..जो लैपटॉप पर काम करते-करते बीच में उन्हें देखती,मुस्कुराती फिर अपने काम में लग जाती।शायद उसे भी इस चालू गाॅसिप में मज़ा आ रहा हो………वो भी तो औरत है छोटी खुिशयों को कैसे पकड़ा जाता है……बख़ूबी जानती होगी।
अलका भी जानती है लेकिन वह ऊब के ऐसे मकडजाल में फँसीं हुई है……..कि उसका निकलना मुश्किल होता जा रहा है। शाम के पाँच बज गये थे..अक्टूबर माह…..सूरज पुनः अपनी लाली बिखेर लौटने की तैयारी में…… और धरती सिहरती सी काला दुपट्टा ओढ़ने को आतुर……।सबने आईसक्रीम खाई,गले मिले,िफर मिलने का वादा किया।
अलका आॅटो-रिक्शा में बैठ मन ही मन संकल्प ले रही थी कि वह लडेगी इस उबन के ख़िलाफ़ …….अनुराग ,कौतुक सारे परिवार को उनकी ख़ुशियाँ लौटा…अपनी ख़ुशियाँे को जीत कर रहेगी।
घर आ गया था …छोटा सा ,फूल-पत्तियों से सज़ा ….हरा -भरा छोटा सा लाॅन ,सीलिंग से लटकतीं टेराकोटा की कन्दीलें……और इन सबमें झाँकती उसकी पहचान…..।अ न्दर घुसते ही माँ(सास) बिस्तर पर लेटी दिखीं….अनुराग कौतुक को गोद ले उदास से बैठे थे….मन किसी अन्जानी आशंका से डर उठा….अलका सिहर सी गयी…..अनुराग ने धीरे से बताया कि माँ की बायोप्सी रिपोर्ट आ गई है…..ब्रेस्ट में जो हल्की सी गाँठ थी …….कैंसर में बदल चुकी है…..हाँलाकि शुरुआती स्टेज में है तो इलाज सम्भव है।
अलका ने माँ का चेहरा देखा……उसका मन हुआ कि वह ज़ोर से उनको गले लगाये और यक़ीन दिलाये कि उन्हें कुछ नहीं होगा …इस लड़ाई में वह उनके साथ है….लेकिन एक अदृश्य दीवार सामने से रोक रही थी ,शायद सास -बहू के बीच की पारम्परिक दीवार…अलका ने स्वयं को समेटा और ज़ोर लगा दीवार तोड़ उनके गले लग गई…उनका हाथ पकड़ बिना रोये-िससके यक़ीं दिलाया कि वह पूरी तरह से उनके साथ है…..।
उसका यह क़दम उसकी सास के िलये जो भी मायने रखता हो….अलका की ज़िन्दगी में …िकसी रासायनिक द्रव्य की भाँति फैल रहा था…।अगले छः-सात महीने बहुत व्यस्त बीते….अलका ने अपना पूरा तन-मन अपनी सास की देखभाल में लगा दिया था….वो भी पूरे परिवार को भावनात्मक सुरक्षा देते हुये।उसकी सास अब पूरी तरह ठीक थीं…उनकी सारी रिपोर्ट नार्मल आई थी…….उनके ब्रेस्ट निकाले जा चुके थे।
अलका ने सहेली बन उनके स्त्रीत्व को बिखरने नहीं दिया…….वह स्वयं एक साहसी और समझदार महिला थीं ,उन्होंने स्वयं को सम्भाल लिया…और रही बात अलका की…उसके जीवन में फैला “उबन का कैंसर “बिलकुल समाप्त बल्कि उसे एक नई दृिष्ट,नई सोच और जीवन के प्रति एक नया रवैया दे गया..,.अब उसकी लड़ाई ख़त्म हो चुकी थी “ऊबन के कैंसर” के ख़िलाफ़ ….. तभी फ़ोन की घंटी बज उठी…रचना थी कुछ परेशान सी…
अलका समझाते हुये बोल रही थी”ज़िन्दगी हमें विस्तृत आकाश देती है और पंख भी,ढेर सारे रंग देती है और रंगने का हुनर भी और बदलें में हमसे उम्मीद करती है ….कि हम इस आकाश,पंख और रंगों का भरपूर सदुपयोग करे…।”
अलका की बातें सुन अनुराग मुस्करा दिये……..आख़िर इतनी छोटी मगर गहरी बात अलका को समझ आ ही गई…।
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आराधना