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Peepal Tree

Published by Durga Prasad in category Family | Hindi | Hindi Story with tag grandmother | Love | prayer

वो पीपल का पेड़ – Peepal Tree (Hindi story on memory of grandmother. My grandmother loved me very much and often saved me from my mother’s anger. She was less educated but knew a lot.)

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वो पीपल का पेड़ – Peepal Tree Hindi story on memory of grandmother
Photo credit: diana_s from morguefile.com

मैंने वो पीपल के पेड़ के बारे में बहुत कुछ सुना था, लेकिन कभी इसे देखने या इसके पास जाने का अवसर नहीं मिला था। बड़े-बुजुर्गों का कहना था कि यह पेड़ चमत्कारी पेड़ों में से एक है। दर्शनमात्र से ही मन के क्लेश दूर हो जाते हैं- अपूर्व शांति का अनुभव होता है। दादी बताती थी कि निर्मल मन से इस पेड़ की पूजा करने से आदमी की मनोकामना पूर्ण होती है। कपटी और छली लोगों से पेड़ नफरत करता है। इस सन्दर्भ में दादी रामचरित मानस की चौपाई भी पढ़ कर सुना देती थी, ‘‘निर्मल जन-मन सो मोहि पावा, मोहि कपट-छल –छिद्र  न भावा‘‘ कहते हैं कि ‘‘कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा के नीर, पाछे-पाछे हरि फिरत कहत कबीर-कबीर।‘

दादी को इस पीपल के पेड़ से इतना लगाव था कि बिछावन से उठकर उसी के ध्यान में मग्न हो जाया करती थी.  स्नान-ध्यान करने के पश्चात एक लोटा जल वह रोज डाला करती थी- इसके जड़ में. मिट्टी का दिया जलाना और धूप दिखाना भी वह कभी नहीं भूलती थी। प्रसाद में बताशे ले जाना उनका नियमित कार्य होता था। गाँव के कुछेक लड़के नंग-धड़ंग प्रसाद की लालच में पहुँच जाते थे। इन बच्चों में प्रसाद बाँटना दादी के लिए हर्ष की बात होती थी।

दादी तीन जमात तक ही पड़ी थी, लेकिन रामायण-महाभारत, वेद-पुराण की कथाओं और प्रसंगों से भली-भाँति परिचित थीं। सूरदास, मीरा, जायसी, रसखान, रहीम, तुलसी, कबीर के दोहे तो उनकी जुबान पर बैठे हुये थे।

कहते हैं न कि देखा-देखी पुण्य और देखा-देखी पाप! दादी को नियमित इस पेड़ की पूजा करते देख गाँव की संभ्रान्त महिलाएँ भी पेड़ की पूजा-अर्चना करने आती रहती थीं। शनिवार के दिन पुरुषों को भी इसकी जड़ में जल डालते हुए अकसराँ देखा करते थे। दादी का कहना था कि शनिवार के दिन पीपल की जड़ में जल डालने से व्यक्ति शनि के प्रकोप से मुक्त हो जाता है। सोमवारी मौनी अमावस्या के दिन तो पेड़ के समीप महिलाओं की भीड़ जुट जाती थी। महिलाएँ सरोवर या नदी में स्नान करके मौन व्रत धारण कर इस पेड़ की परिक्रमा करके माथा टेकती थीं ताकि उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाय। ऐसी मान्यता थी कि सच्चे मन से माथा टेकने से श्रद्धालुओं की मुरादें पूरी हो जाती थीं।

मैं उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब देश आजाद हुए महज कुछेक साल ही हुये थे। अंग्रेजियत की बू सारे महकमें में व्याप्त थी। पढ़ाई-लिखाई के मामले में स्कूल में शिक्षकगण विद्यार्थियों से कड़ाई से पेश आते थे। मुझे पास ही सराय स्कूल में भर्ती करा दिया गया था, लेकिन मैं स्कूल जाने के वक्त चौकी या खटिया के नीचे दुबक कर छुप जाया करता था। माँ तो छड़ी लेकर मुझे ढूँढ़ती थी, लेकिन दादी मेरे बचाव में झूठ बोलने में भी गुरेज नहीं करती थी। पकड़े जाने पर मैं जब माँ के हाथों पीटा जाता था तो दादी आकर छुड़ाती थी। मुझे पढ़ने-लिखने में बिल्कुल मन नहीं लगता था।

हैदर मास्टर ( हेड पंडित ) बड़े ही कडि़यल मिजाज के थे। उन्हें अपनी अंगुलियों पर विद्यार्थियों के नाम याद रहते थे तथा सबों के माता-पिता तथा घरों से परिचित थे। हफ्ता भर स्कूल नहीं जाने से एक शिक्षक के साथ तीन लड़कों को मुझे खींचकर ले आने का आदेश दे डालते थे। ऐसी घटना मेरे साथ दो-तीन बार हुई। शिक्षक यमराज की तरह घर में घुसकर मुझे तलाशना शुरू कर देते थे। एक लड़का मेरा दोनों पैर, दूसरा लड़का दोनों हाथ और तीसरा मेरा बस्ता पकड़ झुलाते-गाते हुये स्कूल ले जाते थे। ये लड़के काफी आह्लादित होते थे और रास्ते भर ‘‘आलकी, पालकी, जै कन्हैया लाल की ‘‘गाते हुए मुझे स्कूल ले जाते थे। मैं पीछे सिर घुमाकर देखता था कि मास्टर साहब की छड़ी उनके हाथ में है कि नहीं।

मेरे स्कूल पहुँचने के साथ दावानल की तरह खबर पूरे छात्रों के बीच फैल जाती थी। लड़के मुझे टंगे हुये देखने के लिए व्यग्र हो उठते थे। हैदर मास्टर के समक्ष मुझे बलि के बकरे की तरह खड़ा कर दिया जाता था। दो-चार झापड़ रसीद करने के बाद मुझे अपने वर्ग में जाने का हुक्म दे दिया जाता था। मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करता था कि गिनती व पहाड़ा का वक्त जल्द आ जाय, क्योंकि छुट्टी होने के पूर्व गिनती व पहाड़ा साथ-साथ सबों को पढ़ाया जाता था।

‘‘एक से सौ तक गिनती एवं दो से बीस तक पहाड़ा सब को कंठस्थ होना चाहिये।‘‘ हैदर मास्टर का हुक्म था।

इतना कुछ होने के बाबजूद मैं पढ़ने-लिखने में फिसड्डी था और पढ़ने-लिखने से जी चुराता था। घर तो घर आस-पड़ोस के लोगों के मन में धारणा बन गई थी कि अब मैं पढूँगा-लिखूँगा नहीं, बड़ा होकर भेड़-बकरी चराऊँगा। दादी को यह बात पचती नहीं थी। एक दिन उसने मुझे निर्मल-बार ( कपड़ा धोने का एक लोकप्रिय साबुन ) से नहला – धुलाकर तैयार कर दिया। अच्छे-अच्छे कपड़े पहना दिये और अपने साथ इसी पीपल के पेड़ के पास ले गयी। उसने नतमस्तक होकर प्रणाम करने के लिए कहा। मैं थोड़ी देर के लिये उपर पेड़ की चारों तरफ गौर से देखा और सुबुद्धि देने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना की। दादी भी मन ही मन कुछ मन्नतें मांगी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि दादी ने मुझे इसी उद्देश्य से नहा-धुलाकर यहाँ लाया था।

उस दिन से पता नहीं मेरे स्वभाव एवं आचरण में आश्चर्यजनक परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। इसे ईश्वरीय शक्ति का परिणाम कहिये या कुदरत का करिश्मा मैं नियमित विद्यालय जाने लगा। यही नहीं पढ़ने-लिखने में भी मेरा मन लगने लगा। मैं बिस्तर से उठने के पश्चात तथा सोने से पहले दादी को हाथ पकड़कर सामने खड़ा कर देता और स्वयं दीवार से सटकर खड़ा हो जाता तथा एक से सौ तक गिनती और दो से बीस तक पहाड़ा सुना देता। दादी के चेहरे पर जो खुशी उस समय मैंने देखी, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो मेरे आलोचक थे, वे अब मेरे प्रशंसक बन गये थे। घर में जो भी व्यक्ति आता, दादी गर्व के साथ मुझे उसके सामने खड़ा कर देती और गिनती-पहाड़ा सुनाने को कहती .  मैं बेधड़क सुनाया करता था और मन ही मन प्रफुल्लित होता था।

पेड़ मेरे घर के ठीक पिछवाड़े था .  ग्रीष्मावकाश के दिनों में मैं इस पीपल की छाँव में बैठकर घंटों पढ़ा करता था। अपनी पाठ याद करने में मुझे बड़ा मजा आता था। कभी-कभी तो मैं पढ़ने में इतना तल्लीन हो जाता था कि माँ के बार-बार बुलाने पर भी खाने के लिए उठकर नहीं जाता था। माँ की कनेठी लगने पर मेरी सुसुप्त चेतना जागृत होती थी। पचास साल से अधिक हो गये। माँ की मार अब भी मुझे याद है। माँ की मार में कितनी मिठास होती थी, उसे याद करके मैं रोमांचित हो उठता हूँ। दादी तो मुझे मार से बचाने के लिये खाना छोड़कर दौड़ पड़ती थी। दादी की ममता इतनी अधिक क्यों थी इसकी भी एक वजह थी। मेरे सर से पिताजी का साया होश सम्भालते ही उठ गया था। पिताजी को इस पीपल के पेड़ पर अटूट आस्था एवं विश्वास था। वे भी प्रत्येक शनिवार को नहा-धोकर इसकी जड़ में एक लोटा जल डालना कभी नहीं भूलते थे।

एक बार माँ बहुत बीमार हो गई। उनके पीठ में घाव हो गया था जो नित्य बढ़ते ही जाता था। माँ को धनबाद सिविल-हास्पीटल में भर्ती करवा दिया गया था। देश को आजाद हुये कुछेक साल ही  हुये थे, लेकिन अब भी सिविल-हास्पीटल में अधिकतर डाक्टर एवं नर्स अंग्रेज ही थे। डाक्टर ने पिताजी को साफ-साफ कह दिया था कि यह बीमारी जानलेवा है, ऐसे पाँच-दस प्रतिशत रोगी ही ठीक होते हैं , बाकी राम भरोसे । दादी बताती थी कि पिताजी ने इस पीपल के पेड़ के नीचे माथा टेककर दुआ माँगी थी कि उनके प्राण भले ही ले ले, परन्तु माँ को जीवन-दान दे दें। हफ्ताभर भी नहीं हुआ था कि पिताजी हास्पीटल से रिक्शा पर आते वक्त सरायढ़ेला की सड़क की ढ़लान पर गिर गये और मूर्छित हो गये। राहगीरों ने उन्हें पकड़कर घर पहुँचाया। नाक से खून बह रहा था। स्थानीय चिकित्सकों ने तो जबाब दे दिया। मेरे पड़ोस के पिताजी के मित्र सत्य नारायण अग्रवाला जी ने फोन करके झरिया से घटक डाक्टर को भी बुलाया, लेकिन सब व्यर्थ। पिताजी का स्वर्गवास युवावस्था में ही हो गया और उधर माँ की तबियत ठीक होने लगी। पीठ का घाव सुखने लगा था।

चूँकि मुखाग्नि मुझसे ही करायी गई थी, इसलिये दादी रोज सुबह सरोवर में स्नान करवा के, गोद में उठाकर इस पीपल के पेड़ पर लटके हुये घंट (मिट्टी का घड़ा) में जल भरवाया करती थी। घर आने पर मुझे शरबत पीने के लिए दिया जाता था तथा दोनों हाथों में दो जलेबियाँ पकड़ा दी जाती थीं। मैं इन जलेबियों को खाने में काफी समय लगाता था। जब कभी भी मैं रोने लगता था तो दादी दौड़कर आती थी और मुझे गोद में उठाकर अपने आँचल से मेरे आँसुओं को पोछती हुई दुलार से पुचकारती थी। मुझे जीवन-मृत्यु का उतना ज्ञान नहीं था। मुझे पिताजी की अनुपस्थिति बहुत खलती थी। रोने पर पिताजी दौड़कर आ जाते थे और गोद में उठाकर चुप कराते थे। दादी को ये सब बातें अच्छी तरह मालूम थी। पिताजी के असमय गुजर जाने से दादी का प्यार मेरे प्रति अधिक था। पिताजी के बारे में पूछने पर दादी इस पीपल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए बताती थी कि वे अब इसी पेड़ पर देवता बनकर रहते हैं, वे अब अदृश्य हो गये हैं, वे हम सबको पेड़ के उपर से देखते रहते हैं, लेकिन हम उन्हें नहीं देख सकते। मै इस रहस्य को उस समय नहीं समझ पाया था।

पड़ोस की महिलाओं को तब जलन होती थी जब दादी को मेरे उपर इतना प्यार व दुलार उढ़ेलते हुये देखती थी। विशेष अवसरों खास कर दुर्गा पूजा एवं होली में दादी बलभद्र मारवाड़ी  की दूकान से अच्छे-अच्छे कपड़े खरीदकर मेरे लिये दो-दो जोड़े पेन्ट-सर्ट सिलवा देती थी। जिस दिन मैं इन कपड़ों को पहनता था, उस दिन मैं चैन से एक जगह नहीं बैठ पाता था। मैं आस-पड़ोस में घूम-घूमकर इसका प्रदर्शन करता था। सच पूछिये तो मैं अपने साथियों को चिढ़ाता था। मेरे बाहर निकलने से पहले दादी काजल का टीका अवश्य लगा देती थी ताकि किसी की नजर न लगे.

जब-जब मैं किसी परीक्षा जैसे मेट्रिक, इन्टर और ग्रेजुएशन की उत्तीर्ण की, दादी मुझे उस पीपल के पेड़ के चबुतरे पर माथा टेकने ले गई। जलाभिषेक किया उन्होंने और प्रसाद भी चढ़ाये। जब मैं उच्च विद्यालय में सहायक शिक्षक बन गया तो दादी की खुशी की सीमा नहीं रही। उस दिन पहली बार जब मैं अपनी पगार लेकर घर घुसा तो दादी  मुझे उस पेड़ के समीप ले गयी। मैंने चबुतरे पर माथा टेका और दादी ने कृतज्ञतावश अपने सर नवा दिये। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि दादी ने मेरी नौकरी के लिये मन्नतें मांगी थी वरना मैं महज उन्नीस साल की उम्र में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्त कैसे होता !

अपनी खेती थी। साल भर खाने का अनाज हो जाता था। नून-तेल के लिये पगार पर्याप्त थी। दादी अचानक बीमार पड़ गई। दवा-दारू की गई , लेकिन उनकी हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली गई। एक दिन हम सब को बुलाकर कोठे के बारामदे पर ले जाने की ईच्छा प्रकट की जहाँ से पीपल का पेड़ साफ-साफ दिखलाई पड़ता था। दोपहर का समय था।  हवा जैसे थम सी गई थी। पेड़ों के पत्ते  प्राणहीन हो गये थे। दादी अपलक पीपल के पेड़ को निहारती रही। दादी ने हाथों के इशारे से मुझे बतलाया कि आज पीपल के पत्ते भी बेजान दीख रहे हैं। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया-बड़े प्यार से मेरे सिर को सहलाया। मैंने दादी के दोनों हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिये।

दादी के अस्त होते जीवन में शक्ति लौट आई और बोली ,‘‘पीपल के पेड़ की ओर देखो तुम्हारे पिता जी माँ . माँ कहकर मुझे बुला रहे हैं , अब मैं वहीं जा रही हूँ , वहीं जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आ पाता।‘

दादी के सबल हाथ ढ़ीले पड़ गये-गर्दन लटक गई। आँखों की पुतलियाँ जो एक बार निष्प्राण होकर पीपल के पेड़ की पत्तियों पर टिकी तो टिकी रह गयीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि दादी हमें छोड़कर सदा-सर्वदा के लिये चली गई उसी पीपल के पेड़ पर जहां मेरे पिता जी रहते हैं . प्राण –पखेरू उड़ जाने के बाद भी दादी के होठों पर मुस्कान थी क्योंकि वह तो अपने वर्षों से बिछुड़े जिगर के टुकड़े बेटे ( मेरे पिता जी ) से मिलने जा रही थी. वह बेहद खुश थी जबकि हम अत्यन्त दुखी थे.

आज भी वह पीपल का पेड़ अपनी जगह अजर-अमर खड़ा है। जब भी मैं पूजा- अर्चना के लिये इसके समीप जाता हूँ तो दादी इसकी घनी पत्तियों के बीच से झांकती है मानों वह मुझसे कुछ बात करना चाहती हो। मैं उनकी ओर देखकर रोमांचित हो उठता हूँ और सोचता हूँ ‘‘काश, ऐसा हो पाता !‘‘

यह कहानी 18 मार्च 2013 को पूर्ण हुयी

लेखक : दुर्गा प्रसाद

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