टेनिया – Tenia: I was an orphan but my Muslim parents always treated me as their own son. When they passed away, I became orphan again. Read this touching Hindi story.
सज्जू ओस्ताद हज में जाने से पहले मुझे राधेश्याम गैरेज की चाभी थमाते हुए बोले , ‘ आज से तुम्हीं इस गैरेज के मालिक हो और तुम्हारा नाम टेनिया नहीं आज से राधेश्याम होगा. सज्जू गैरेज मैंने अनवर के नाम और रज्जाक गैरेज युसूफ के नाम कर दिया है. तुमने पूरी ईमानदारी एवं मेहनत से मेरे गैरेज में पंद्रह वर्षों तक लगातार काम किया है और हमें तरक्की के मुकाम तक पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाई है. मैं तो हज में जा रहा हूँ , पता नहीं लौटूं या न लौटूं . मम्मी का ख्याल रखना . बड़े हो , बच्चे कभी कुछ गलती कर बैठे तो उन्हें माफ़ कर देना.
सज्जू ओस्ताद हज करने गये तो फिर लौट के नहीं आये . किसी वजह से वहीं अल्ला के प्यारे हो गये.
हज में जाने के दिन जब भी आते हैं , उनको याद करके आँखे भर आती हैं .
आज उनकी पांचवीं बरसी है. गैरेज बंद है और शुबह से ही यतीमों व गरीबों को खिलाने तथा वस्त्र बांटने का काम चल रहा है .
सभी कार्य संपन्न हो जाने के बाद मैं घर की तरफ चल देता हूँ तो मेरे पाँव डगमगाकर शिथिल हो जाते हैं.
मैं पीपल के चबूतरे पर निढाल हो जाता हूँ . सज्जू ओस्ताद के साथ बीते हुए दिन मुझे अतीत में झाकने के लिए मजबूर कर देता है.
मैंने जब होश सम्हाला तो अपने को सज्जू ओस्ताद के आँगन में खेलते – कूदते पाया . परिवार में सज्जू ओस्ताद , उनकी बीवी जिसे मैं अम्मी कहकर पुकारा करता था , और एक मैं था . मैंने पास के ही एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में तालीम हासील की थी. सेवेन क्लास तक ही पढ़ पाया . जब मैं बारह साल का हो गया तो एक दिन अब्बाजान ( सज्जू ओस्ताद ) से गैरेज में काम करने की बात रखी तो वे मान गये . फिर क्या था अपनी जिंदगी इसी गैरेज से शुरू हो गयी.
पता नहीं , मुझे गैरेज के काम में बहुत मन लगने लगा . तरह –तरह के लोग , तरह – तरह की भेष – भूषा , बात चीत करने के भी तौर तरीके अलग – अलग . जो भी लोग आते थे , मुझे बड़े प्यार से टेनिया कहकर बुलाते थे.
उस वक़्त मेरी उम्र महज दस साल होगी. अम्मीजान मुझे रज्जू नाम से पुकारा करती थी. उनके पुकारने में जो मिठास थी , उसे मैं ताजिन्दगी भुला नहीं सकता . अब्बाजान भी मुझे रज्जू बेटा कहकर पुकारा करते थे. ईद , बकरीद व रमजान के महीने में अम्मीजान मेरा बहुत ख्याल रखती थी. इतना लाड – प्यार शायद ही मोहल्ले के दुसरे लड़कों को मिल पाता था . नए – नए कीमती कपडे , बाटा के जूते – मोज़े, जालीदार महँगी टोपी . मुझे सोफे पर बैठाकर जब आँखों में काजल लगाती थी और गाल पर एक टीका दे देती थी तो अब्बाजान से रहा नहीं जाता था. कुछ न कुछ बोल ही देते थे.
जब उनके साथ बाहर कहीं जाता था तो मैं जिद करके काला चस्मा ( गोगल्स ) पहन लेता था. मैं अम्मीजान की उंगली पकड़ कर जब चलता था तो किसी शहजादा से कम नहीं लगता था. अब्बाजान मुड़ – मुड़ के हमें देखते थे तब मैं उन्हें टा- टा कर देता था. वे मुस्कुरा पड़ते थे. एक संतान का जितना लगाव माँ से होता है उतना बाप से नहीं . इसीलिए किसी ने कहा है , ‘ जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी ’ ( माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. )
पांच वर्षों के बाद अनवर और युसूफ पैदा लिये तो आँगन खुशियों से खिल उठा. मैं अम्मीजान के कोख से पैदा नहीं लिया था यह बात मुझसे छुपी हुई नहीं थी. अब्बा हज में जाने से पहले मुझे सबकुछ बता दिए थे . मैं इन सभी फजूल की बातों में कि मैं हिन्दू हूँ कि मुसलमान हूँ दिमाग कभी नहीं खपाया. मुझे ‘डू गुड , बी गुड ’ पर ज्यादा यकीन था. माम्मीजन के प्यार व दुलार में कोई कमी नहीं थी. उसने कभी भी किसी को एहसास नहीं होने दिया कि मैं उनकी संतान नहीं हूँ.
प्यार से लोग मुझे टेनिया कहकर बुलाया करते थे , जो भी किसी काम के लिए हमारे गैरेज में आते थे . कोई मुझ जैसे बालक को टेनिया कहकर पुकारे तो घर वालों के साथ – साथ उस बालक को भी बूरा लग सकता है , आपत्ति हो सकती है , लेकिन मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. दिल की बात बता दूं तो किसी के टेनिया कहने से जो वातावरण में मीठास घुल जाती थी , उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता. मैंने कभी एतराज नहीं जताया . सोचता था नाम में क्या धरा है . असली चीज तो सद्कर्म है , सद्व्यवहार है. आदमियत और इंसानियत है . यही वजह थी कि मुझे ग्राहकों से बेशुमार प्यार मिलता था. मैं जो भी काम करता था दिलोजान से करता था. शिकायत का मौका नहीं देता था . लोग यह कहने में नहीं चुकते थे कि बाप से ज्यादा विनम्र उसका बेटा है. कितना काबिल है कि बाप के न रहने पर भी सारा काम बखूबी सम्हाल लेता है. यह सब सुनकर अब्बाजान का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था. मुझे और अधिक मेहनत व ईमानदारी से काम करने की प्रेरणा मिलती थी, मन में उत्साह जगता था.
जिसकी सहानुभूति मेरे नाम के साथ होती थी , वे पूछ बैठते थे , ‘ तुम्हारा नाम टेनिया कैसे पड़ा तो मैं मौन धारण कर लेता था या टाल देता था .
कभी – कभी मौन रहना फायदेमंद भी होता है . इंसान मौन रहकर अप्रत्याशित उलझनों से बच सकता है . गैरेज का काम ही ऐसा है कि आदमी तो आदमी मशीनों से भी जूझना पड़ता है. इस काम में काफी मेहनत – मशक्कत करनी पड़ती है. कुछ ऐसे लोग भी आते थे जो बेमतलब के उलझ जाते थे. ये वे लोग ही होते थे जिन्हें किसी न किसी बहाने नुश्क निकालकर पैसे कम देने होते थे. एक कुशल सेल्समैन की तरह ऐसे अवसरों में खून का घूँट पीकर रह जाना पड़ता था मुझे.
वक़्त के साथ – साथ सब कुछ बदलता गया . यह प्रकृति की प्रवृति होती है. हम भी व्यस्क हो गये. अनवर और युसूफ मुझसे पांच सात साल छोटे थे. अब्बाजान कभी भी अपने को मालिक नहीं समझे , लेकिन अनवर और युसूफ अपने को मालिक समझने लगे. जब अब्बाजान नहीं रहते थे तो रौब दिखाकर पैसे लेकर चल देते थे. कोई बात छिपती नहीं .
किसी शायर ने ठीक ही कहा है , ‘ सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के वसूलों से , खुसबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से.’
अब्बाजान को धीरे –धीरे सबकुछ मालूम हो गया. वे दोनों लड़कों से खफा रहते थे. अम्मीजान के लाख समझाने – बूझाने के बाद भी दोनों के दोंनो मेरे साथ बद्शलूकी करते थे . अम्मीजान बहुत दुखी रहने लगी. नहीं चाहती थी घर का माहौल इतना न बिगड़ जाए कि जीना हराम हो जाए.
मैं गैरेज के कामों में मशगुल था . अब्बाजान ने खबर दी , ‘ आज तुम्हारी अ म्मीजन की शादी का सालगिरह है , आज गैरेज एक बेला बंद करके सीधे चले आना. तुम्हारे लिए खासतौर से पूडी – खीर और आलूदम बनाने में लगी हुयी है सवेरे से ही’.
गैरेज बंद करके मैं मेन रोड चला गया और एक सोने का चेन खरीद कर घर पहुंचा. अम्मीजान का दिल तो मेरे ऊपर लगा हुआ था . उसने मुझे आते हुए देख लिया दूर से ही. फिर क्या था दौड़ पडी आदतन , गले लगा लिया और हाथ पकड़ कर अंदर ले गयी. मैंने बैठते ही पूछ बैठा , ‘ अम्मी ! अनवर और युसूफ ?
वे … वे लोग दोस्तों के साथ हुंडरू फोल पिकनिक पर गये हैं . बोल के गये हैं शाम तक लौट कर आ जायेंगे . अब क्या बताऊँ , तुमसे तो कोई बात छुपी नहीं है. दिन ढलते देर नहीं लगी. अँधेरा छाने लगा . रात के नौ बज गये , लेकिन अनवर और युसूफ का कहीं अता – पता नहीं . अब्बाजान गालपर हाथ दिए उदास एक कोने में बैठे हुए थे . मैंने उनका हाथ पकड़ कर अम्मी के पास ले आया और चेन उनके हाथ में थमाते हुए गुजारिश की, ‘ अब्बा ! इस मौके पर अ म्मी को अपने हाथों से पहना दीजिये .
अब्बा तनिक भी देर नहीं की . आंसू पी गये. मुस्कान बिखरते हुए अम्मी को जब चेन पहनाये तो वे खुशी से फुले नहीं समा रही थीं .
खाना खाने के बाद मैं अपने कमरे में सोने चला गया . मुझे आज पता नहीं नींद नहीं आ रही थी. सधे क़दमों से अम्मी कमरे में आयी और मेरे सिरहाने बैठ गयी. उसने मेरे बालों को सहलाते हुए बोली , ‘ लल्ला ! ( जब वह भावुक हो जाती थी तो मुझे लल्ला कहती थी ) . मैं अनवर और युसूफ को लेकर चितित रहती हूँ . पता नहीं …
आप बेकार की चिंता करती हैं . सब कुछ ठीक हो जायेगा . मेरी सलाह है कि दोनों की शादी कर दी जाय . जिम्मेदारी बढ़ने से हो सकता है दोनों सुधर जाय.
अम्मी मेरी बात समझ गयी . अगले ही महीने दोनों की शादी कर दी गयी. बहुएं घर आयी तो हफ्ता दो हफ्ता सब कुछ ठीक – ठाक रहा . उसके बाद दोनों बहुओं में कहा सूनी शुरू हो गयी. अम्मी के नाम से एक मकान पुरुलिया रोड में था जो भाडा पर लगा हुआ था . हमने मकान खाली करवाए . अम्मी मेरे कहने से वो मकान अनवर के नाम तथा यह मकान युसूफ के नाम बाकायदा रजिस्ट्री कर दी. गैरेज के पीछे दो कमरे मैंने बनवा लिये थे . अनवर अपने घर में शिफ्ट कर गया युसूफ अम्मी के साथ पुराने घर में रह गया . मैं गैरेज वाले घर में चला गया. इस बंटवारे से माँ खुश नहीं थी , लेकिन मेरे मनवाने से मान गयी. अब्बाजान के गुजर जाने के बाद मेरी जिम्मेदारी बढ़ गयी थी. मैं नहीं चाहता था कि छोटी – छोटी बातों के लिए अनबन पैदा हो और परिवार टूट कर विखर जाय.
सब के घर व काम अलग – अलग हो जाने से जिम्मेदारी सबकी बढ़ गयी.
‘कमाओगे तो खाओगे, न कमाओगे तो भूखे पेट सोना पड़ेगा’ – यह बात अम्मी के सामने मैंने समझा दिया था अनवर और युसूफ को .
एक दिन मैं गैरेज के कामों में काफी व्यस्त था . तभी युसूफ हांफता हुआ आया और बताया कि अम्मीजान की तबियत बहुत ख़राब है . अचानक आँगन में फिसल कर गिर गयी है. मैं सब काम छोड़ कर चल दिया . गाडी मंगवाई और सीधे हॉस्पिटल ले गया . इमरजेंसी वार्ड में ही भरती कर दिया गया . सभी तरह के टेस्ट हुए . सी टी स्कैन से पता चला कि ब्रेन हेमरेज है. सर के पिछले हिस्से में गंभीर चोट है. अम्मी को तत्काल आई सी यू में शिफ्ट कर दिया गया . हम सभी बाहर बैठकर डाक्टर का इन्तजार करने लगे. न्यूरो सर्जन आये और सभी र्रिपोर्ट देखने के बाद हमें बता दिया कि पेशेंट सीरियस है . कोमा में चली गयी है. सेवेंटी टू आवर्स के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. डाक्टर के हाव – भाव से मुझे लगा अम्मी काफी सीरियस है .
अनवर और युसूफ को मैंने समझाने की बहुत कोशिश की कि ऐसे दुःख की घड़ी में धीरज बना कर रखे . लेकिन उनका रोना – धोना बंद नहीं हुआ . दोनों बहुएं एक किनारे गुम – सुम बैठी हुयी थीं . शुबह नौ बजे के करीब डाक्टर राऊंड में आये .
नर्स ने आकर कहा , ‘ पेशेंट बहुत ही सिरियस है , आपलोग देख सकते हैं .’
एक – एक कर सभी लोग देख कर आ गये . सबसे अंत में मैं गया . अम्मीजान का हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगा . पल भर के लिए आँखें खोली – मेरे तरफ गौर से देखी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मुझे भान हुआ कि दिल में जो बात दबी हुयी है , वह रुखसत लेने के पहले कह देना चाहती है . लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आँखें मुंदी तो मुंदी रह गयी. वह हमें छोड़ कर हमेशा – हमेशा के लिए चली गयी – एक अनजान दुनिया में जहां से कोई दोबारा लौट के नहीं आता .
अम्मीजान के गुजर जाने के बाद मैं अन्दर से टूट सा गया. मुझे घर क्या पूरा शहर ही काटने को दौड़ता था. मैंने गैरेज बेच डाली और पुणे चला आया . एक आयकर अधिकारी की धर्मपत्नी मेरे गैरेज में गाडी का काम करवाने आया करती थी . मैं सभी कामों को छोड़कर पहले उनका काम कर दिया करता था . वह मुझे लड़के की तरह प्यार करती थी. उनके पति का स्थानांतरण पुणे हो गया था . मेमसाहेब मुझे पुणे बुलाते रहती थी. कोई अच्छा सा काम दिलाने का भरोसा भी दिलाई थी लेकिन मैं अम्मीजान को छोड़ कर जाना नहीं चाहता था. पेट तो मानता नहीं . कुछ न कुछ मुझे करना ही था. गैरेज के कामों से मैं ऊब चूका था – एक तरह से उचाट हो गया था.
मैंने मेमसाहेब से मुलाक़ात की और अपने दिल की बात बतलाई. उनकी मदद से में रोड में ही एक अच्छी सी दूकान भाड़े पर मिल गयी. चूँकि बचपन से मुझे फोटोग्राफी का शौक था , इसलिए मैंने एक स्टूडियो खोल लिया. कुछ ही महीनों में मेरा काम चल निकला . रात को जब गहरी नींद में सो जाता था तो अम्मीजान मेरे ख्वाब में आ जाती थी और कहती थी , ‘ लल्ला ! तुम घर क्यों नहीं बसा लेते ! ’ बहिस्त ( स्वर्ग ) में जगह मुझे तभी मिलेगी , जब तुम घर बसा लोगे .
अम्मी मुझे बेहद प्यार करती थी. उनका मेरे ऊपर भरोसा भी था. मुझे याद नहीं कि मैंने उनकी कोई बात टाल दी हो .
मैंने एक ईसाई महिला , जो मेरे स्टूडियो में किसी न किसी काम से आया करती थी , दिल से चाहने लगा था . वह एक नर्सिंग होम में नर्स का काम करती थी. सवभाव से ओवरजेंटल थी. मुझे ऐसे ही जीवनसाथी की तलाश थी. हमारी जान पहचान बढ़ी . जान – पहचान ने मोहब्बत का रूप ले लिया . हम एक दुसरे को चाहने लगे . नारी लज्जा की साक्षात प्रतिमूर्ति होती है . वह पहल नहीं कर सकती – विशेष कर ऐसे मामलों में . मैंने ही एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा तो वह तैयार हो गयी. फिर क्या था हमारी शादी हो गयी .
अब मुझे यकीं हो गया कि अम्मी को बहिस्त ( स्वर्ग ) में जगह अवश्य मिल गयी होगी , क्योंकि मैंने जो वचन स्वप्न में अम्मीजान को दिए थे , उसे मैंने पूरा कर लिया था – घर बसाके |
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लेखक : दुर्गा प्रसाद |