अमर सुगंध ( AMAR SUGANDH) : A Hindi story about our parents,actually they are living in our house after their death. But how ?? Is it dream or illusion?
”आपके पहलु में आ के रो दिए …. ”
रफ़ी का गाया यह गीत उसकी यादों की गलियोँ में गूंज रहा था … फिल्म -”मेरा साया ” का यह गीत उससे कुछ कहना चाहता था। वह दूर पेड़ की छाँव में खड़ा इसे सुन रहा था … उसे ऐसा लगा कि मानो यह गीत नहीं है … बल्कि उसके माँ -बाप की करुण पुकार है …
आखिर तीन पुत्रों से भरी उनकी गोद में इतना दर्द क्यों है ? कौन सा ऐसा दर्द है -जो इस धरती पर हर माँ -बाप को रात-रात भर रुलाता रहता है ? यह सोच -सोच कर वह आँखों में ही आंसुओं के छोटे -छोटे बाल पकड़े उन्हें बाहर आने रोकता रहा …
और यह सच भी है।क़भी -क़भी कोई गीत हमारे अकेले पन की अंगुली थाम लेता है।और कभी -कभी कोई गीत हमारा पिता बनकर हमें सीने से चिपटा लेते है। तो कभी कोई गीत माँ कांपता हाथ बनकर हमारा हाथ थाम लेता है। ” मैं माँ- बाबूजी को अपने पास ले आउंगा” ऐसा सोच कर वह घर की ओर रवाना हो गया। जिस प्राचीन वट वृक्ष के नीचे वह खड़ा था ,उससे उसका घर बहुत दूर था।इधर रास्ते में बहुत सारी सड़के थी।लोग थे। ब्रेक मारती कारें थी। बसे थी। भीड़ भरी आवारा जवानियाँ थीं। सड़कों पर चलते बदहवास लोग ऎसे लग रहे थे -मानों उन्होंने अपने-अपने घरों को छिपने की जगह बना ली हो … दर्द से भरी इन सड़कों को पार करते हुए वह हमेशा अपने घर देरी से ही पहुँच पाता था …
घर का दरवाजा आधा खुला था। वह एक पोस्टकार्ड की तरह घर में प्रवेश कर गया …
उसकी पत्नी एक अगरबत्ती की तरह खुश्बू बिखेरती घर के मदिर में खड़ी थी। दोनों बच्चे वर्तमान के पाँव पहने कॉलेज से घर लौट आये थे … काम करने वाली बाईजी रसोई में खाना बना रही थी। तवे पर पकती रोटी में से उसे अपनी माँ की गंध आने लगी। आँगन में उतर आयी संध्या की धूप की आहट में उसे अपने बाबूजी के पुराने फ़िल्मी गीतों की पद्चाप सुनाई देने लगी थी …
वह चौंक उठा !
उसे लगा कि उसके घर पहुँचने से पहले ही उसके माँ-बाबूजी उसके घर पहुँच चुके थे।
हालाँकि उसके माता- पिता को मरे पांच वर्ष हो चुके थे …
आज उसने पहली बार यह जाना था कि तवे पर पकती रोटी की गंध में और पुराने फ़िल्मी गीतों की धुन में भी माँ-बाप की अमर सुगंध को सूंघा जा सकता है …
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रविदत्त मोहता