यह मेरी निजी सहेली की आत्मव्यथा है। उसके जगह मैंनेअपने आपको रखकर लेखिका दृस्टि से कहानी को प्रस्तुत करने की कोशिश की है।
अक्सर तन्हाई में दिल अपनी बातें दुहराता है। क्या सही है ? क्या गलत है ? लाख कोशिशों के वावजूद ये दिल समझ नहीं पाता है। अन्तर्मन बार -बार चीख -चीखकर यह सवाल दुहराता है, क्या मै इतनी नासमझ हूँ। इतनी बुरी हूँ। कई बार ये सवाल मैंने मन से मन ने मुझसे किया। अंत में इन्हीं सवालों के चक्रव्यूह में उलझ कर रह जातीं हूँ। जैसे -मकड़ी कई बार अपने जाले में उलझ जाती है। उह लाख कोशिशों के वावजूद निकल नहीं पाती।
छोटी सी थी तो माँ – बाप ने ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया। उस समय दादा -दादी,नाना -नानी ने मुझ पर असीम प्रेम लुटाया। थोड़ी बड़ी हुई तों स्कूल के टीचरों ने दुनिया की वस्तुओं की जानकारी करवाई ,थोड़ी बड़ी हुई तो बहुत कुछ भाई -बहनो ,दोस्तों -यारों से सीखा। जिंदगी तो ऐसी चल रही थी की जैसे -स्वछन्द गगन में उड़ते बादल। समय तो मानो पंख लगाकर उड़ चला।
ईश्वर की अनुकम्पा से मैं खूबसूरती की धनी थी।ईश्वर ने बड़े फुर्सत से बनाया था ,बोलने -हसने की तो आदत कूट -कूटकर भरी थी मुझमे। जब कॉलेज की उच्च स्तरीय पढ़ाई खत्म हुई। उसके बाद मैंने टीचिंग ज्वाइन कर लिया। अब माता -पिता द्वारा हमेशा संस्कारों की शिच्छा दी जाती। जैसे -बेटी जब ससुराल जाती है तो उहाँ की होकर है ,यह पलटकर माइके की ओर नहीं लौटती। उहाँ के हर दुःख बना ख़ुशी में बदल देती है। बेटी मइके से डोली में बिदा होती है और ससुराल से उसकी अर्थी पर होती है। ये हमारी सभ्यता की पहचान है।
मन ही मन माँ की बातों को गाठ बाँधे आ चुकी थी शादी की दहलीज पर। लड़केवालों का आना शुरू हो चूका था। उनकी अपनी फरमाईशें होतीं। जैसे -लड़की सुंदर होनी चाहिए। सर्वगुण सम्पन्न होनी चाहिए ,ये खुद से सवाल क्यों नहीं करते की लड़का कितना सर्वगुण सम्पन्न है ?पर हमरी समाज की विडम्वना देखें। लड़के वाले श्रेष्ठ माने जाते हैं। मै लड़केवालों के सामने थाली में रखे स्वादिस्ट वयंजन के समान नुमाइश के लिए रख दी जाती। जैसे पसंद हो तो खाइये। किसी भी चीज की कमी न होने के कारण मेरा इंटरव्यू सफल रहा। घरवालों ने मुझे बधाई दी ,जैसे मैंने कोई जंग जीत ली हो।
मन ईष्वर को धन्यवाद दिया। इस कठिन परीछा को सफल बनने में अपने मदद की।वो दिन भी आया जब मै शादी क़र जीवनसाथी के संग सुखी जीवन वयतीत करने का ख्याल दिल में लिए आई थी। वहां पहुंचते ही अपने जाने -पहचाने कोई चेहरा नहीं दिख रहा था। चारो ओर अनजाने लोगों की भीड़ में मै तन्हां महशुश कर रही थी। रह -रह कर माँ -पापा ,भाई-बहनो को ये निगाहें खोज रही थी। एकांत में उनको याद कर आशुँ बहा लेती। हर कोना नया कोई भी बात कहनी हो तो किससे कहूं। पति को अपने दोस्तों -परिवार से कहाँ फुरसत थी। मेरी और ध्यान देने को।
नयी -नयी निश्छल गुड़िया तरह सबकी और प्यार पाने की लालसा से हस्ती -बोलती। पर पता नहीं सास नन्दों की रोका -टोक शुरू हो जाती। इतना बोलना चाहिए। अब तो सास की आँखों से डर लगने लगा। सरे सपने धरे के धरे रह गए। समझ नहीं प रही थी कौन सी बात इन्हें पसंद है कौन सी नहीं।हाथों की मेहँदी भी न छूटी थी की रसोई का दामन थाम लिया। सबों को खुश करने भर लगी रहती मेहनताना के रूप में शाबाशी की जगह शिकायतों का पिटारा खुलता। जैसे – तेरी माँ तुझे कुछ नहीं सिखाया।रात को इन उप्लभ्दियों से नवाजे जाने के बाद खाने के एक निवाला गले के अंदर उतरता। जब निजी छनो में पति से अपने दिल का हाल कहने की कोशिश करती तो वो अपने माता-पिता के खिलाफ एक सब्द सुनने को तैयार न थे। उलटे ये कहते तुम्हरी सारी गलती होगी।
दिनभर सास -ससुर के अरमानो को पूरा करने के लिए इधर -उधर बेतहाशा मशीन की तरह दौड़ लगाती रहती ,जैसे कोल्हू का बैल दिन भर भागता रहता है। रात में पति की फरमाईशें पूरी होती। नींद कहाँ आती ,ऑंखें खोले अपनी आनेवाली जिंदगी के बारे में सोचा करती। यहाँ न कोई दोस्त ,न सहेली ,ना माँ -बाप और ना ही कोई मेरे दुःख को समझने वाला। इन बातों को सोच -सोचकर अंदर ही अंदर घुटती रहती। माँ -पापा को ये बातें कैसे बताती। जिन्होंने बड़े अरमानो से मेहनत पसीने की कमाई से पढ़ाया -लिखाया और शादी की। दिन काटे नहीं कटते ,राते चिंता में नहीं कटती।
घर के बड़े होने के कारण जिम्मेदारियों का बोझ कुछ ज्यादा ही लाद दिया गया। घर में सास -नन्दों और देवरों का बोलबाला होता। कुछ भी करने के बावजूद उपदेश ही मिलते। नन्दे ,देवरों ,पति और सास -ससुर एक कमरे में चाय ,नास्ते का आनंद लेते। मेरी शिकायतें होतीं ,फिर भी मै चुपचाप किचन में उनकी फरमाईशें पूरी करने में लगी रहती। इतना करने के बाबजूद कोई मुझे पसंद नहीं करता। घर के सारे काम मै और मेरे पति बड़े होने के नाते करते बाकी सारे सिर्फ निर्णय सुनाते। क्या मै घर के काम करने के लिए मै घर की सदस्य हूँ। मुझे घर के छोटे निर्णय लेने का भी अधिकार नहीं है।
मेरे सास -ससुर हमेशा एक ही राग अलापते ,मुझे अपने माँ -पापा समझो। मेरे समझने से क्या आप मुझे दिल से बेटी मन लोगे नहीं ,जब भी हस्ती -बोलती आपको ऐतराज होता ,मेरे माँ -पापा तो खुश होते। जब भी मै रसोई में कुछ बनाती माँ -पापा खुश होते। आपकी अपनी बेटियाँ जब घर आती तो आप उन्हें कोई काम करने को न कहते और ये कहते सारे काम तेरी भाभी करेगी। क्या अपने मुझे कभी बेटी माना। कभी नहीं। `मेरे साथ देवरों का व्य्वहार दोहरी निति का था। वो भी माँ -पापा के सुर में सुर मिलाकर काम निकालते ,उनकी पत्नी के साथ अच्छा वयवहार होता। ये कहाँ का इंसाफ मेरा जीवन गधे की तरह जिम्मेदारियों का बोझ ढोते -ढोते पूरा जीवन निकल गया। फिर भी लोगो की उपएछाओं पर खरी न उतर पाई। लोगो को मेरी कोई कद्र नहीं।
जब मै अपने जीवन में झांकती हूँ तो क्या बचा। तन्हाइयाँ ,दुत्कार ,अवहेलना ,टुटा हुआ मनोबल। इतना ओरो के लिए किया की अपने को फुर्सत के दो पल न मिले की आईना निहार लूँ। जिम्मेदारिओं को ढोने का ईनाम तो यही मिलना चाहिए न दोस्तों।
जीवन क्या है मेरे लिए? यह एक काँटों से बिछी रास्तें है ,मेरे लिए हर हाल में आगे बढ़ना है। इन दर्द की चुभन को सीने में दबाएँ। इस दुनिया से अलविदा कहना है।
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