मिट्ठू और मैना
उस धूल भरी चादर के ऊपर पैर पसारे मैना एक टक खिड़की के बाहर देख रही थी। न जाने वो क्या देख रही थी कि शरीर से चमड़ी उतार देने वाली गर्मी भी उसकी मुस्कान न छीन सकी। कुछ तो होगा उस झरोखे के बाहर जो शायद आपकी और मेरी नज़रें देखने में नाकाम हैं। तभी एक हलचल होती है और ठक-ठक की आवाज़ सुनाई पड़ती है।
वो मुस्कुराहट जो भीनी थी अब सूरज की पहली किरण के जैसी प्रतीत होती है। यह वो मुस्कुराहट है जिसे आप और मैं दूर देशों की मीनारों, लज़ीज़ भोजन, ऊँची दुकानों पर बिकने वाले वस्रों में ढूँढते हैं। पर वो फिर भी खोयी रहती है। मैना के मुख पर यह सुसज्जित है। पर ना ही मैना के पास उन ऊँची दुकानों पर चढ़ने के लिए पैसा है और न ही लज़ीज़ भोजन के लिए भरा हुआ पेट।
वो तपती हुई धरती का सहारा लेकर खड़ी होती है। इस छोटी सी कोठरी से उजाले ने मनो नाता ही तोड़ दिया हो पर आज मैना की आँखों की चमक इसे रोशन कर रही है। वो दीवार टटोलते हुए आगे बढ़ती है, उसके कदम लड़खड़ाते हैं पर वो धीरे-धीरे झारोखे के पास जाती है। वह जानी-पहचानी ठक-ठक की आवाज़ और पास आती है। खाकी कपड़ों में एक नौजवान बढ़ा चला आ रहा है। उसके कंधे पर एक झोला टंगा है और उसके हाथ में कुछ पत्र हैं। वह मैना को देख कर अपना सिर झुका लेता है जैसे कबूतर बिल्ली को देख कर। हो सकता है इस बार अगर वो मैना को न देखे तो वह भी न देख पाए। वह डाकिया अपनी चाल भी धीमी कर देता है और वह ठक-ठक की आवाज़ धूल में दब जाती है।
“अरे ओ डाकिया!” मैना चिल्लाती है। उसकी आवाज़ कानो को चुभने वाली है। डाकिया रुक जाता है और अपना सिर हिलाता है।
“माई, तेरे नाम की कोई चिट्टी ना आई। तू थके ना है इस झारोखे पर रोज़-रोज़ खड़े होके?” डाकिया की आवाज़ सख्त थी पर एक दर्द उसमे भी छुपा था।
पिछले दस सालों से मैना अपने पति की राह तक रही थी। मिठ्ठू ने कहा था शहर जाकर काम करेगा, गाँव में उसके लायक कोई नौकरी नहीं थी। उसने मैना को हर माह पत्र लिखने का वचन दिया था।
“मेरी आँखें तो तू ही है। मैं ना लिखा जानू ना और कुछ देख पाऊ। तेरे जाने के बाद मैं तो आधी मर जाऊँगी।”
मिट्ठू उसपर चिल्लाया। अपनी तरक्की का उसे रोड़ा बताया। वह रात के साए में बिना किसी आहाट के खो गया। और उसकी राह तकती हुई मैना रोज़ उस छोटे से झारोखे के बहार देखती। उसे वह चिलकती हुई धूप या मुरझाए हुए पेड़ न दिखते। उसे वो पल दिखते जहाँ उस चिलकती हुई धूप में मिट्ठू ने उसकी बाँह पकड़ी थी। जहाँ वह उसे ब्याह के इस कोठारी में लाया था। जहाँ मिट्ठू उसकी आँखों की रौशनी था।
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- चारु सारस्वत