Read Hindi Story of mother from an Autobiography – When I was in college got a chance to teach in my former school. I was feeling lucky & scared too.
माँ का आशीर्वाद –
मैंने मेट्रिक पास करने के बाद आर. एस. पी. कालेज , झरिया में प्रीकाम में दाखिला अपने मित्र मथुरा प्रसाद के साथ ले लिया. वाणिज्य की क्लासेस मोर्निंग चलती थी. हमें शुबह सात बजे तक कालेज हर हाल में पहुँच जाना पड़ता था. 1961 का साल था जब हमने कालेज में दाखिला लिया था. उस वक्त गोबिन्दपुर से शुबह में कोई बस नहीं चलती थी. आर. एस. पी. कालेज , झरिया के लिए मुझे पहले धनबाद जाना पड़ता था. फिर वहां से दूसरी बस पकड़ कर झरिया जाना पड़ता था .झरिया शहर से एक किलोमीटर पहले ही रजा शिव प्रसाद कोलेज मुख्य सड़क की बायीं और अवस्थित था.
आज भी वहीं अवस्थित है और फायर एरिया या ज़ोन में पड़ने की वजह से इसे किसी दूसरी जगह शिफ्ट करने का प्रयास सरकार द्वारा की जा रही है ताकि कोई अनहोनी घटना न हो जाय . कतिपय लोगों /संगगठनों के विरोध के कारण स्थानान्तरण का कार्य अधर में लटका हुआ है. क्लासेस उसी स्थान में अबाध गति से चल रही है निर्भयरूप से. गोबिन्द्पुर ( मेरा घर ) से धनबाद स्टेसन 12 किलोमीटर और धनबाद से झरिया 5 किलोमीटर . इस हालत में हमारे लिए सही समय पर कालेज पहुंचना कठिन ही नहीं अपितु असंभव था. इसलिए हमने एक तरकीब ढूंड निकाली. द्वारिका चाचा पुलिस आफिस में काम करते थे और उनका क्वार्टर हिरापुर में था. हमने उनसे मुलाकात की तथा शाम को आकर रात में रहने की बात रखी. अपनी दिकत्तें भी बतलायीं. वे राजी हो गए.
अब हम रोज शाम को किताब-कापी लेकर हिरापुर पहुँच जाते थे. शुबह बस स्टेंड से बस पकड़ कर कालेज समय से पहुँच जाते थे. इस प्रकार हमारी पढ़ाई अबाध गति से चलने लगी. यह बात सच थी कि मुझे काफी मेहनत – मशक्कत करनी पड़ती थी और दिनभर की दौड़- धूप में हम थक कर चूर हो जाते थे. हम ईश्वर से कोई उपाय ढूढने की प्रार्थना करते रहते थे.मथुरा ने मुझे कामर्स पढ़ने लिए उकसाया था, इसलिए यदा- कदा उसे कोसता रहता था . कहते हैं अगर सच्चे दिल से दुआ किया जाय तो मन्नत जरूर पूरी होती है. हमारे मामले में भी यही हुआ.
1962 में दिल मोहम्मद की भारत बस शुबह छः बजे लाल बाजार बस स्टेंड से चलनी शुरू हो गई. हमारे लिए तो मानो लोटरी ही निकल गई. हमें अभी और तीन साल पढ़ना था और तीन साल का वक्त कोई कम नहीं होता. शाम को हिरापुर जाना बंद हो गया तो हमारी जान में जान आई. 1962 में प्री- कम एवं 1963 में बी.-कम पार्ट-1 हम अछे अंकों से उत्तीर्ण हो गए. पार्ट वन इंटर के समकछ माना जाता था. पता चला कि गोबिन्दपुर हाई स्कूल में शिक्षक का पद खाली है. मैं हेड मास्टर से मिला और सारी बातों की जानकारी ली. मैं उस स्कूल का क्षात्र रह चूका था, इसलिए शिक्षक लोगों की मेरे प्रति सहानुभूति थी. उस वक्त सेक्रेटरी सत्य नारायण अग्रवाल( सम्प्रति सत्य नारायण दुदानी) थे, जो मेरे पड़ोसी थे तथा मुझे अच्छी तरह जानते थे. मैंने आवेदन कर दिया.
मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. मुझे आर्ट्स के विषय विशेष कर अंग्रेजी पढाने की बात कही गई. मुझसे कई प्रश्न पूछे गए जिनका उत्तर मैंने बेहिचक दे दिया. फिर एलेवेंथ क्लास को अंग्रेजी की किताब “The Stories from the East and the West” में से “Beauty and the Beast “ पढाने के लिए कहा गया. मैं तो टेंथ के विद्यार्थी को घर पर अंग्रेजी पढाता ही था, इसलिए मुझे पढाने में कोई असुबिधा नहीं हुई. जो शिक्षक विशेष कर तत्कालीन हेड मास्टर रमाकांत झा मेरे पढाने के ढंग की जाँच में लगे थे, वे काफी प्रसन्न दिख रहे थे.
कलेवर बाबू ने संदेह जाहिर करते हुए अपना मंतव्य रखा, “ अभी तो दुर्गा प्रसाद स्वं विद्यार्थी दिखता है, क्या टेंथ एवं एलेवेंथ को कंट्रोल कर पायेगा?”
“ अच्छा पढ़ाएगा तो सब कुछ सम्हाल लेगा. “ रमाकांत झा ने आश्वस्त किया.
बात यह थी कि झा जी का मैं प्रिय क्षात्रों में से एक था और उनके विषय में अछे अंक लाया करता था. उनसे मैंने दो महीने ट्यूसन पढ़ी थी जिस दौरान वे मेरी वुद्धि से भली-भांति परिचित थे. सच बात तो यह थी कि मेरे प्रति उनका सोफ्ट कोर्नर था. सभी मेरे शिक्षक रह चुके थे और अब को-शिक्षक बनने जा रहे थे. यह बात किसी को पच रही थी तो किसी को नागवार लग रही थी. संस्कृत मास्टर ने तो यहाँ तक कह डाला, “ अब गेठा(नाटा) मास्टर का कमी नहीं रोहेगा”
वे स्वं नाटे थे. अकेले थे वे. पंचफुटिया जवान . अब मेरे आने से उनकी जमात मजबूत होने जा रही थी. उनका खुश होना एक तरह वाजीब ही था. मैं राम बालक सिंह, जो विज्ञान के शिक्षक थे , की पत्नी,जो सेठ सुखी राम बालिका विद्यालय में शिक्षिका थी, को ट्यूसन पढाया करता था.इसलिए राम बालक सिंह मेरे डेड सपोर्टर थे. राधा मोहन बाबू संत स्वभाव के शिक्षक थे. इसलिए उनको मेरी नियुक्ति होने न होने से कोई लेना देना नहीं था. किसी ने उनका कान भरने की कोशिश की, “ सर, कल दिन का छोकड़ा, दुर्गवा बन रहा है टीचर.”
राधा बाबू ने तपाक से उत्तर दिया ” का हर्जा बा भाई, अपने न स्कूल के लड़का बा, एमे तो हमन लोग के खुश होखे के चाही.”
राधा बाबु बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे और उनको अपनी मतीभाषा से अगाथ प्रेम था, इसलिए वे हमेशा भोजपुरी में ही बात करते थे. वे भी विज्ञान के शिक्षक थे और गणित में उनकी अच्छी पकड़ थी. त्रिगोनोमेट्री में तो उन्हें महारत हाशिल था. इतने सहज व सरल ढंग से समझाते थे कि नासमझ को भी समझ आ जाती थी. साधू स्वभाव के व्यक्ति थे. जब उन्होंने सटीक जवाब दिया तो इस जवाब से उस व्यक्ति की बोलती बंद हो गई. ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुलना था. दो चार दिन भी नहीं बीते होंगे कि मुझे नियुक्ति – पत्र मिल गया. मेरी तो खुशी की सीमा नहीं रही. घरवाले भी बहुत खुश हुए. मैं सभी गुरुजनों के पांव छुए , आशीर्वाद लिए. अंत में माँ को विस्तार से सभी बातें बतलायीं और चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किये.
जुलाई 1964 के महीने में मैंने सहायक शिक्षक के पद पर जोएन किया. मैंने झा जी को शुरू के दो क्लास लेने से मुक्त रखने का निवेदन किया क्योंकि मुझे आर. एस. पी. कालेज, झरिया , बी. काम. पार्ट –टू का मोर्निंग क्लास भी एटेंड करना था. मैंने इस सम्बंध में स्कूल प्रबंधन को अपील की जो स्वीकृत हो गई. मेरा रोज का रूटीन बन गया कि साढ़े दस बजे के लगभग लक्ष्मी बस से घर के पास उतरना और साईकिल लेकर स्कूल समय पर पहुँच जाना. पहुँचते के साथ मेरे क्लास शुरू हो जाते थे जो लास्ट पीरिअड तक चलते रहते थे. कभी- कभी अवकाश मिलने पर मुझे स्टाफ-रूम में अपने शिक्षकों के साथ बैठना पड़ता था. शुरू शुरू में मुझे बड़ा अजीब लगता था. बाद में मैं अभ्यस्त हो गया. मेरा संकोच भी जाता रहा. कलेवर बाबू और संस्कृत टीचर की दया दृष्टी मुझ पर ज्यादा ही थी. ज्यादा इसलिए कि वे अपने अर्थशात्र एवं संस्कृत के क्लास स्वं न लेकर बहुधा मुझे भेज दिया करते थे. मरता क्या न करता ! वे मेरे शिक्षक रह चुके थे. उनकी बात मुझे माननी ही पड़ती थी.
अर्थशास्त्र तो मैं सहजता से पढ़ा दिया करता था , लेकिन संस्कृत मेरे लिए कठिन साबित होता था. इसकी वजह थी कि मुझे उतनी जानकारी नहीं थीं. एक फायदा जो मुझे हुआ , वह मेरे लिए वरदान साबित हुआ बाद के दिनों में, वह यह था कि मुझे संस्कृत शुरू से सीखना पड़ा और सभी पाठ विशेषकर श्लोक आदि याद कर लेने पड़े. संस्कृत के श्लोक पढ़ने से मुझे शाश्वत सुख का अनुभव होने लगा और मैं पूरी रुची के साथ समझने एवं याद करने लगा. अब तो ऐसा हो गया कि विद्यार्थी मुझसे पढने के लिए ज्यादा दबाव बनाने लगे. मैं भी संस्कृत पढाने में मन लगाने लगा. अर्थशास्त्र में कुछ विशेष चेप्टर , जो विद्यार्थी जीवन में नहीं समझ सका था, अब उसे समझने लगा था. जैसे मांग के नियम , मांग की लोच , वस्तु का मूल्य निर्धारण , उपयोगिता के नियम इत्यादि . मेरा बी.काम. में अर्थशाश्त्र विषय भी था , इसलिए मुझे पढाने में बड़ा मजा आता था.
मेरे लिए एक-एक दिन बेसब्री से कट रहा था क्योंकि मैं सेलरी मिलने का इन्तजार कर रहा था. दो अगस्त को मुझे बहादुर ने सूचना दी कि बिशु बाबू ( रिश्ते में मेरे बहनोई ) सेलरी के लिए बुला रहे हैं. उस वक्त मेरे मन में उथल-पुथल मचा हुआ था और व्यग्र था कि कितनी जल्द मुझे मेरी पहली पगार मिल जाये.
बिशु बाबू मेरे पड़ोसी एवं रिश्तेदार ही नही थे बल्कि शुभचिंतक भी थे. उसने पे- बिल मेरे सामने बढ़ा दी. मैंने हस्ताक्षर कर दिए तो 45 रूपये गिनकर मुझे थमा दिए. मैंने चरण छूकर आशीर्वाद लिए तथा ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिए. मैं अब एक मिनट भी रुकना नहीं चाहता था , साईकिल उठाई और सीधे माँ को खोजते हुए घर में दाखिल हुआ. माँ रसोई में चावल बीन रही थी. मुझे देखते ही उठ खड़ी हो गई और पूछ बैठी, “ क्या बात है, आज बड़ा खुश दिख रहे हो ?”
“ ऐसी बात ही है. आज मुझे पहली पगार याने वेतन याने सेलरी मिली है.मगर ?
“मगर क्या यही न कि महज पैंतालीस रूपये” ,
माँ ने मेरी नियुक्ति- पत्र पहले ही पढ़ चुकी थी और उसे मालूम था की मेरा मासिक वेतन होगा 45 रूपये. माँ ने कहा,’ इससे मन छोटा नहीं करना चाहिए. किसी दिन तुम्हें पैंतालीस हज़ार मिलेंगे , यह मेरा आशीर्वाद है | ”
माँ का देहांत 5 January 1888 को मेरी आँखों के सामने हाथ पर हाथ दिए हो गया. वह हमें छोड़ कर एक अज्ञात लोक में सदा – सदा के लिए मुझे रोते-विलखते छोड़ गई.
मैं 30 April 2006 को सेवामुक्त होनेवाला था. मैं सेन्ट्रल हॉस्पिटल,धनबाद ,बी.सी.सी. एल. में Finance Manager/Area Finance Manager / HOD / DDO के पद पर था. सर्विस का आख़री दिन था. फेअरवेल के बाद मैं जाने लगा तो किशोर जी( Dealing Assistant, Executive Bills ) मेरी गाड़ी के पास आये और बोले, “ सर,आपका अप्रील महीने का पे स्लीप. मैंने एक नज़र डाली कि इस महीने सेलरी कितनी है. यह देखकर मैं दंग रह गया कि मेरी सेलरी पैंतालीस हज़ार रूपये हैं. तत्काल मुझे माँ की उन दिनों की बात याद आ गई और मैं भाव विह्वल हो गया . मैंने नौकरी पैंतालीस रूपये मासिक वेतन से शुरू की थी और आज पैंतालीस हज़ार रूपये में सेवामुक्त ( Retired ) हो रहा था. ‘माँ का आशीर्वाद ’से बढ़ कर शायद दुनिया में कुछ नहीं होता ! – ऐसा मेरा मत है.
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दुर्गा प्रसाद