एक – मैं उन दिनों गोबिन्दपुर हाई स्कूल का दसवीं वर्ग का क्षात्र था. वर्ष था १९५९. घर की माली हालत ठीक नहीं थी. मुझे ट्यूशन पढ़ना जरूरी था क्योकि वार्षिक परीक्षा सर पर थी ओर मुझे अच्छे अंकों से अंग्रेजी एवं हिन्दी में पास करना ही था. मैंने माँ से ट्यूशन पढ़ने की जिद करने लगा और मात्र दो महीने पढ़ने के लिए तीस रुपये देने का आग्रह किया. माँ के पास तो पैसे थे ही नहीं. तो वह कैसे देती, लेकिन मेरी जिद में दम था जिसे वह काट नहीं सकती थी. वह झट अपने दोनों हाथों की चांदी के कंगन उतार कर मेरे हाथों में थमा दी और बोली ,
“ इन्हें किसी सोनार बो बेच दो तो तुमको तीस रूपये जरूर मिल जायेंगें.”
माँ की इस बात से मैं काफी दुखित हो गया, लेकिन माँ ने मुझे धर्मसंकट से उबारते हुए बोली,” सोचते क्या हो ? कंगन ही न जायेगा, फिर कभी बन जायेगा जब तुम अच्छी तरह पढ़ – लिखकर आदमी बन जाओगे. ले जाओ और आज ही बेच डालो. साथ में सीताराम दादा को ले लेना ताकि तुम्हें बच्चा समझ कर सोनार ठग न ले. ज्यादा सोचो मत. कल से ही ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दो”.
माँ ने इतने प्यार एवं दुलार से यह बात कह गई कि मैं उनकी बात नहीं काट सका. माँ ने एक पोटली में दोनों कंगनो को अच्छी तरह बाँध दी और मेरे को पुचकारती हुई घर के बाहर ले आई और सामने बीड़ी बांधते हुए दादा की ओर इशारा करते हुए बड़ी ही सहजता से बोली,” देखो, दादाजी बैठें हैं, बुला लाओ, कहो माँ जरूरी काम से बुला रही है , वे जरूर आयेंगें.”
मैं एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह झट दौड़कर गया ओर उन्हें बुला लाया. माँ ने उन्हें कुछ समझाया और वह पोटली उनके हाथों में बड़े इत्मीनान से थमा दी और निश्चिंत हो गयी. मैं उनके हाथ पकड़ कर उनके साथ- साथ चल दिया और हरि सोनार की दुकान में गए. सोनार दादा जी को देखते हुए खड़ा हो गया और आने का कारन पूछा,” क्या बात है भैया, सबेरे- सबेरे इधर ?”
दादाजी ने पोटली से माँ के दोनों कंगनों को निकालकर उसके हाथ में थमा दिए और सारी बातें समझा दी. उस सोनार ने तराजू में वजन किया सामान को और पैंतीस रूपये निकाल के दादाजी के हाथ में थमा दिए. मुझे काफी दुःख हुआ, लेकिन मैं इसे अंदर- अंदर ही पी गया , आँसूं के रूप में बाहर नहीं निकलने दिया.
ऐसी थी मेरी माँ ! आज उनके गुजरे हुए चौबीस साल हो गए और इस घटना के तिरपन साल हो गए , लेकिन मेरे मन के किसी अनजान कोने में जो दर्द छुपा हुआ है – जब वह उठता है तो मैं सहन नहीं कर पाता. – वह मैं खुद झेलता हूँ . माँ को याद करके जब रोता हूँ तो ऐसा एहसास होता है कि वह मेरे करीब ही कहीं है. माँ ने जो मेरे लिए इतना कुछ किया , उससे मैं कभी उरीन नहीं हो सकता. ऐसी थी मेरी माँ !
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