राम-दुलारी (आप बीती)
एक दिन की बात है, मैं ट्रेन पकडकर कोडरमा से पटना जा रहा था। ट्रेन में रामलाल और दुलारी- नये चम-चमाते कपडे पहन, होंठो पर मीठी मुस्कान लिये, मूंगफली बेच रहे थे। दोनों बहुत खुश थे।
मैं थोडा आश्चर्य से उन्हें देखा।
रामलाल- मूंगफली ले लो भाई!
मैं भी चौंकते हुए कहा- हॉं पॉच की मूंगफली दे दो!
मैं मूंगफली तो खा रहा था, लेकिन मेरी नजर उन्हीं दोनों पर था।
अंतत: अपनी सीट छोडकर- मैं उसके पास गया और पूछा- क्या बात है? आपलोग बहुत खुश नजर आ रहे हैं। आपलोग मूंगफली बेचने वाले नहीं लगते हैं!
रामलाल-दुलारी(दोनों मुस्कुराये, अगल-बगल झांक):- फिर बोले- नहीं भाई। हम लोग मूंगफली बेचने वाले नहीं है। हॉं, यही तो मैं भी कह रहा हूं।
हॉं, यही तो मैं भी कह रहा हूं।
रामलाल-दुलारी(थोडा मुस्कुराये और रोते हुए बोले) :- दरअसल हमलोग कुछ दिन पहले तक एक भिखारी थे। लेकिन अब पाव-भाजी का ठेला लगाते हैं। खुश इसलिए हैं कि, हमलोग अपने दोस्त की शादी में जा रहे हैं। मेरा दोस्त पटना स्टेशन के पास के ही एक झोपडी में रहता है।
भाई आप तो जानते हो- इस हाल में हमलोगों को कोई ट्रेन में चढने नहीं देगा। वैसे भी हमलोगों को टिकट लेने की आदत भी नहीं- इसलिए मूंगफली बेच रहे हैं, और सफर भी कर रहे हैं।
मैं भी बैठा-बैठा बोर हो रहा था। सोचा क्यों ना इन दोनो से बात की जाय। जब बात शुरू हुई, तो दोनों अपनी कहानी कुछ इस तरह बयां किये:-
रामलाल और दुलारी कोडरमा स्टेशन के समीप के एक झोपड़ी में रहते थे। रामलाल का एक आंख और एक पैर भगवान ने अपने पास ही रख लिया था| दुलारी के दोनों आंख सलामत, लेकिन दुनिया घूमती- वैशाखी के सहारे| दोनों की गुफ्तगु कोडरमा स्टेशन पर हुई और जल्द ही दोनों ने शादी कर ली। मोह्ल्ले वालों (झुग्गी-झोपड़ी वाले भिखारी, कूड़े-कचरे चुनने वाले, रिक्शावाले इत्यादि), कुछ ऑफिस (कोडरमा स्टेशन के समीप के भीखारी) के स्टाफ शादी में शरीक हुए| ना रामलाल का कोई अपना और ना ही दुलारी का अर्थात दोनों लावारिस थे| इनका पालन-पोषण इन्हीं झुग्गी- झोपड़ी में हुआ था| शादी की हर रस्म निभाई गई। ना जात-पात पूछा गया और ना ही धन-दौलत के साथ खानदान| लेकिन दहेज की रस्म पूरी की गई| लड़की जिस जगह पर भीख मांगती थी, वह जगह भी लड़का का हो गया| अर्थात अब दोनों जगहों पर बारी-बारी से एक साथ मिलकर भीख मांगने लगे|
” ना कोई दीवार, ना खिडकी दरवाजे
टिमटिमाते तारे, खुली आसमान के नीचे,
ना खटिया ना बिछावन, ना वो हल्दी वाली दुध
सिर्फ मंद-मंद हंसी के संग पायलों की छम-छम,
चंद्रमा भी शरमा के जाने को हुई
लेकिन दोनों मदहोश है ऐसे,
जैसे दो जिस्म पर एक है सांसे। ”
रामलाल:- जानती हो दुलारी, जब पहली बार दफ्तर में जॉइनिंग किये, तो काम करने में शर्म आता था। ना जाने कितना रैगिंग हुआ, कितनों ने कितने नाम दिए- कभी अरे भिखारी, ओय लंगड़ा, अबे अंधा तो कभी-कभी दुत्कार भी देते थे| लेकिन इतना सुनने के बाद भी कटोरी में आता 25 पैसे, 50 पैसे तो कुछ बिस्कुट, मिठाई, जूठन या बचा हुआ खाना और कभी कुछ भी नहीं| जिसने हमें एक रुपया दे दिया, भरपेट खाना खिला दिया या पुराना कपडा दे दिया, हमलोग उसे भगवान मानते थे, और खुश होकर उसके लिए बडे भगवान से बहुत दुआयें मांगते थे।
बहुत बार सोचा- ये नौकरी छोड़ दूं| लेकिन पेट को तो किसी कीमत पर खाना चाहिए, कुछ और कर नहीं सकता था। क्योंकि शरीर के अलावा थोडा दिमाग से भी आधा था| जब तक पूरा सोचता, तब तक दुनिया ठोकर मार कर दूसरे चौराहे, दूसरे स्टेशन जाने को मजबूर कर देती थी| फिर भी हम लोग समय पर ऑफिस जाते थे| हम लोगों की पोशाक भी अलग थी, जिसे सिर्फ आदमी ही नहीं कुत्ता भी दूर हटने को कहता था| कब कहां शाम, दिन-रात गुजारना पड़े कोई निश्चित नहीं होता था|
दुलारी सुन रही हो ना? – एक दिन की बात है। एक बड़े साहब का बटुआ नीचे गिर गया| साहब पूरे सूट-बूट में थे| आंखों पर काला चश्मा। अपनी धुन में गुनगुनाते हुए तेज कदमों से अपनी कार की ओर जा रहे थे| तभी उनका बटुवा गिर गया| रामलाल (बटुवा उठाकर चिल्लाया): साहब- साहब आपका बटुआ गिर गया| लेकिन साहब ने नहीं सुना| मैं और तेज भागा। साहब गाडी में बैठने वाले ही थे की मैं बडी मुश्किल से पीछे से साहब का कोट पकड़ लिया| क्योंकि कोट नहीं पकड़ता तो साहब गाड़ी पर बैठ कर निकल जाते| जैसे ही मैंने उनका कोट पकड़ा|
साहब(गुस्से में घूमकर): मुझे जोर से एक थप्पड मारा, लात-जूते से पीटा, भद्दी-भद्दी गाली दिया| शायद मैं एक भिखारी था, और साहब ने सोच लिया कि मैं भीख मांग रहा हूं|
रामलाल: सच उसने मुझे बहुत मारा। मैं सोचता रहा कि मेरा कसूर क्या है?
साहब (मारने के बाद बोला): साले भीख चाहिए था? तो दूर से मांगता। तुम ने मुझे छुआ क्यों?
रामलाल: तब तक भीड़ जमा हो गई थी। मैं शर्म के मारे जमीन के नीचे छुपना चाह रहा था, लेकिन वो भी नसीब में नहीं था। चुपचाप सुनता रहा, और क्या करता?
साहब: तुम्हें पैसा चाहिए? मैं पैसा देता हूं। यह कह कर उसने बटुवा निकालने के लिए जेब में हाथ डाला तो बटुवा नहीं था। वह हक्का-बक्का रह गया।
रामलाल(तभी हमने बटुवा को हाथ में देते हुए कहा): मैंने आपका कोट पकड़ा था की यह बटुवा आप तक पहुंच सके। इसलिए मैं अपाहिज होते हुए भी भागकर आपके कार के पास आया। साहब भीख मांगना रहता तो नहीं आता, और ना ही आपका कोट पकडता। और साहब भीख मांगकर ही हमने 18 साल की उम्र पार की है। अभी भी अच्छे इंसान है, जो हमलोगों का दुख-दर्द को समझते हैं, हमारी ईमान पर दे जाते हैं।
रामलाल: माफ करना साहब। यदि मुझे पता होता कि मुझे ऐसी सजा मिलेगी। तो बटुवा वहीं छोड़ देता। कोई दुसरा होता तो आपका बटुवा लेकर गायब हो गया होता। और मैं रोते-रोते वहां से जाने लगा। लेकिन हमें उसका गम नहीं दुलारी! जानती हो उसके बाद साहब ने मुझसे माफी मांगा। और तो और सीने से लगाया। और इस दृश्य के समय भी लोगों की भीड़ वहीं थी। सच! मेरा खोया हुआ इज्जत मुझे वापस मिल गया।
साहब मुझे पैसा दे रहे थे, लेकिन मैंने इनकार कर दिया। क्योंकि साहब की भी गलती नहीं थी। दरअसल वह सचमुच में कानों में गाना सुनने वाला मशीन लगाए हुए थे, इसलिए मेरी आवाज नहीं सुन पाये। रामलाल घटना सुनाते-सुनाते रो पड़ा।
दुलारी उसे हिम्मत देती है और बोलती है: जो हाल आपका है, वही हाल मेरा है। फर्क सिर्फ इतना है कि आपने तो रो लिया, लेकिन मैं- ना किसी से कुछ कह पाई, और ना ही खुलकर रो पाई।
दुलारी: आपको जो परेशानी झेलना पडा, वही हमें भी झेलनी पडी। लेकिन मेरी सबसे बड़ी परेशानी तब होती थी, जब लोग मेरी दशा को नहीं बल्कि भूखी नजरों से मेरी फटे कपडे के बीच से नंगे जिस्म को झांकते थे। भीख तो देते थे लेकिन अंदर-ही-अंदर मूंह मे लार टपकाते, और ना जाने क्या-क्या व्यंग्य कसते थे। सच में इन भूखे भेड़ियों को देखकर दिल यही कहता था- “हे भगवान या तो मुझे पूरा कुरूप बना देता या फिर ऊपर ही बुला लेता। कम-से-कम इन भेड़ियों के हाथों रोज शर्मशार होने से तो अच्छा होता”। लेकिन मेरी ही तरह, ना जाने और भी कितनी लड़कियां हैं। जो रोज इस तरह का जख्म लेकर, भेडियों, दलालों के नजरों का शिकार होने के बावजूद काम पर लगी रहती है। क्योंकि पेट पालने के लिए काम तो करना जरूरी था।
दुलारी(सच रामलाल): मुझे तुम्हारा साथ मिला तो मैं अपने को धन्य मानती हूँ। भगवान से यही प्रार्थना है की आप हमेशा हमारे साथ रहें।
“तुम मिल गये
सारी दुनिया मिल गया,
जो सोचा ना था,
वो भी मिल गया। ”
रामलाल-दुलारी (एक साथ में): और क्या दास्तान सुनाऊं- भाई हम लोग बहुत ही मुश्किल से आगे बढे हैं। कभी-कभी हमलोग ये सोच कर भी कांप जाते हैं, की मेरे बच्चों का क्या होगा।
लो भाई- मूंगफली खाओ!
नहीं मैं बहुत खा लिया है, अब और नहीं।
लो भाई- सफर मे समय कट जायेगा।
मैं भी चाहकर मना नहीं कर सका और फिर पांच का मूंगफली ले लिया। चाय वाला आया तो हमने भी उन्हें चाय पिलाया। बात आगे बढी…………… ।
रामलाल-दुलारी : हमलोग अपनी तनख्वाह से कुछ पैसा भविष्य के लिए भी बचा कर रखने लगे। हमारी कमाई भी कभी अच्छी तो कभी घाटे में होती है। हमें भी दूसरे क्षेत्र में जाने पर डायरेक्ट टैक्स देना पड़ता है। जैसे हमलोग कोडरमा, तिलैया, हजारीबाग, बरही शहर लेकिन, इससे बाहर जाने के लिये वीजा बनवाना पड़ता है। अन्यथा कोई सगे सम्बंधी के साथ हो लेते हैं। फिर भी ट्रेन में बैठा , टी.टी या पुलिस वाले पकड़ ही लेते थे। टी.टी तो थोडे भले आदमी थे, डांट या कुछ पैसा लेकर छोड देते थे।
लेकिन डंडे वाले – पहले तो भद्दी गाली देते, फिर सर्च के नाम पर शरीर की आंतरिक अंग व बाह्य अंग पर अपना हाथ फेर लेते थे। हमलोग भी मजबूर होते थे।
कुछ ने अपनी इज्जत बचाई तो कुछ ने दो बोगी के जुडाव के स्थान या बोगी के बाथरूम में अपनी इज्जत गवाई। किसी को अगाडी क दर्द मिलता तो किसी को पछाडी….। साथ में पैसा भी छिन लेते थे। हमलोग में भी, कुछ भाई-बहन ऐसे थे, जिन्हें ये खेल बहुत पसंद आता था। क्योंकि वे लोग इस सौदे के साये में अपनी कालाबजारी, तस्करी का भी समान सौदा करते थे।
दुलारी: शायद टीटी में भी वह भिखारी टीटी होता था। हमलोग कभी टिकट लेते नहीं। काम ही ऐसा है-
” मांगते जाना, बढ़ते जाना,
ट्रेन हो या गाड़ी, स्टेशन हो बस स्टैंड,
या फिर मंदिर-मस्जिद-गुरुदवारा,
जगह-जगह भगवान के नाम पर दे दे बाबा,
अल्लाह के नाम पर दे दे बाबा।
रोने बिलखने, गिडगिडाने के बाद भी
टीटी लोग नहीं मानते और पैसा ले ही लेते थे।”
इसलिए ट्रेन का सफर कभी-कभी महंगा पड़ता था। हमलोगों के साथ में ज्यादा कपड़ा भी नहीं होता था। गर्मी का मौसम थोडा अच्छा होता था, लेकिन ठंडा और बरसात में तो मत पूछो? कब किस स्टेशन पर सोना पडे। ना बिछावन की चिंता, ना ही मच्छर की चिंता। और सच भी है, क्योंकि इतना भ्रमण करते थे कि थकने के बाद जब नींद आती थी, तो कुछ पता नहीं चलता था की शरीर से कितना खून चोर(मच्छर) चुरा कर ले गया। सामान की चिंता होती नहीं थी।
रामलाल: आप हमलोगों की कहानी सुन कर बोर हो रहे होंगे- भाई।
भाई: रामलाल बोर क्या होना? ….. आने में अभी देर है। और बैठे-बैठे क्या करें। सुख-दुख बांटना ही तो जिंदगी है।
लारी: भाई आप कितने अच्छे दिल के हैं।
रामलाल (भाई बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है): कभी-कभी, पुलिस हमलोगों को शक के आधार पर हवालात में बंद करके पिटाई करते है। क्योंकि कुछ सडे आम पूरी टोकरी को खराब कर देते है। उसी तरह हमलोगों में भी कुछ भाई लोग अपनी गलत हरकतों से हमें बदनाम कर देते हैं। कुछ की तो मजबूरी होती है- भीख मॉगना, तो कुछ को मॉंग कर खाने में ही मजा आता है, और कुछ जानकर अपने सेहतमंद शरीर से भीख मांगते हैं। लेकिन कुछ लोगों को तो जानकर अपाहिज बना दिया जाता है , आंख का अंधा बना देते हैं और उससे भीख मंगवाते हैं।
भाई ये जानकर ताज्जुब होगा की जो भीख मांगता है, उसे भरपेट खाना भी नहीं मिलता। क्योंकि शाम को जमा पैसा उसका मालिक लेकर चला जाता है। हमलोग बरसात में पानी में भींग कर भीख मांगते हैं।
ना…. ना , इतना गरीब मत समझना।
हमलोग इतना पैसा कमाते की धीरे-धीरे सभी सामान खरीद कर रख सकते हैं। लेकिन छाता हमलोग नहीं रख सकते हैं। क्योंकि, फिर हाथ से नौकरी चली जाएगी। और एक बार नौकरी गई, तो दोबारा किस तरह पोस्टिंग होगा, ये सोचना पड़ेगा।
इसी दौरान, मेरी एक दिन तबीयत खराब हो गई। लोकल इलाज करायें, लेकिन कुछ सुधार नहीं हुआ। आखिरकर, जब इनकी तबीयत ठीक नहीं हुआ, तो इन्हें नर्सिंग होम में भर्ती करवाये। लोग बोलने लगे कि अब यह बचने वाला नहीं है। यह सुनकर तो मेरी होश उड़ गई।
दुलारी: मैं सोचने लगी, क्यों भगवान एक तो अलग मानव बनाया हमलोगों को, फिर भी पेट नहीं भरा। तो मुझे ले जाता। शायद तुम्हारे कलेजे को थोड़ी ठंडक मिलती। इन्हें तो छोड़ देते।
रामलाल: अरे पगली कैसी बात करती हो? हमने कसमें खाई है- मरेंगे तो साथ, जिएंगे तो साथ! मत रो। चुप हो जाओ। क्या करें भाई इसका दिल 100 ग्राम मुर्गी वाली जैसी है। भाई: नहीं रामलाल! यह एक पतिव्रता की पहचान है, जो तुम्हें इतना प्यार करती है।
दुलारी: भाई! जब ये बीमार पड़े, तो लगा हमारी दुनिया उजड़ गई। हम खुद को संभाल नहीं पा रहे थे। क्योंकि बुखार कम होने का नाम नहीं ले रहा था।
डॉक्टर साहब(सभी टेस्ट करवाने के बाद)- टायफाय्ड हो गया है। पूरे 12,000 रुपए खर्च होंगे। पहले पैसा जमा करो, फिर इलाज होगा वरना नहीं होगा।
दुलारी: डॉक्टर साहब को हमलोगों पर भरोसा नहीं था। क्योंकि हमलोग के नौकरी में, छुट्टी का पैसा नहीं मिलता है। और ना ही रिटायरमेंट के बाद कोई पेंशन या एक मुश्त पैसा मिलता है। अर्थात जब तक काम करोगे, तो पैसा मिलेगा, काम नहीं तो पैसा नहीं। और………… ना सोने का ठिकाना, ना खाने का ठिकाना, ना जाने कितने बार तो हमलोग खाली पेट ही सो जाते है और ईमानदारी से हमलोग ब्लड डोनेशन भी करते हैं। क्योंकि हम खाना खाये या ना खाये लेकिन मच्छर बिरादर को तो खाना चाहिये। फिर भी सुबह जागते हैं तो ना जोश की कमी होती और ना ही चेहरे का मेक-अप…।
डॉक्टर साहब(शायद सोचे)- ये पैसा कहां से देगी? और ना ही इनका कोई गारंटर है।
दुलारी(बहुत रोई)- साहब कुछ कम करके इलाज कर दो। धीरे-धीरे पैसा चुकती कर दूंगी। अभी हमारे पास ₹7000 है। लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआ।
दुलारी(मन-ही-मन सोची)- भगवान ने तो एक आंख बंद करके जमीन पर भेजा था, लेकिन यह डॉक्टर दोनों आंख बंद करके भगवान के पास भेजेगा और बोलेगा- देख भगवान तुमसे बड़ा मैं हूं। दुलारी अब रामलाल को देखें या डॉक्टर की फीस का इंतजाम करें, या फिर नौकरी पर जायें ? दिन भर भीख मांगती, शाम में रामलाल की सेवा करती और भगवान से दुआ भी करती। लेकिन काम पर मन नहीं लग रहा था। हमेशा चिंता रामलाल की लगी रहती थी। दुलारी अपने सगे-संबंधी के पास भी मदद के लिए गई। लेकिन सभी की नौकरी की यही हालत थी। कुछ लोगों ने थोडा बहुत पैसा दिया लेकिन फिर भी कम ही था। दुलारी पैसा के लिए रात दिन एक कर दी।
किसी के घर की कुंडी खटखटाई,
कर्ज के लिए सेठ के पास भी गई,
लेकिन जालिम ने 100 रुपये देकर
एक पल को हमारी बहादुरी पर पीठ थपथापाई,
दूई पल मैं जैसी ही जाने को पलटी-
मेरी गेहुऑ शरीर को देखकर मुंह से लार टपकाई।
सच अपनी इज्जत बचाकर बहुत मुश्किल से भागी।
जिस क्षेत्र में नहीं जाना था, वहॉ भी घुमना शुरू कर दी। लेकिन इतना पैसा कहां से जमा होता? क्योंकि भीख में नोट नहीं 10 पैसे, 25 पैसे, 50 पैसे, शायद ही कहीं से एक या पॉच का नोट मिल जाता था। कुछ लोग ज्यादा देना चाहते थे। लेकिन वह मेरी मदद कम, मजबूरी का फायदा उठाना चाहते थे।
व्यंग्य कसते थे- अरे क्यों पड़ी हो अंधे और लंगडे के चक्कर में, कहॉ अपने इन नाजुक बदन को धुप में झुलसा रही हो। ये लो ₹20, ₹50, या ₹100। बस एक बार अपने बदन को संवारने का मौका दे दो। यह ताने सुन-सुन कर मेरे कान पक गई थी। मजबूर होकर सोची- पके हुए घाव को फ़टने दूं, अपने बदन को संवारने दे दूं। अपने पति को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थी। ये कैसी है दुनिया? ये कैसे लोग हैं? इन्हीं ख्यालों में खोई मैं चलते जा रही थी। सच, मैं अपना होश हवास खो गई थी। ना जाने कब और कैसे, मैं बीच सड़क पर आ गई। तभी ड्राइवर ने कसकर ब्रेक लगाया और एक भद्दी सी गाली देते हुए- साली मरना ही है तो मेरे पास आकर मर, गाड़ी के नीचे क्यों मर रही हो?
तभी मैं जागी, तो देखी की मैं एक कार के नीचे आने ही वाली थी। मैं चुपचाप, उसे फूटी नजरों से देखती रही और मन ही मन सोची- जो मौत में आज गले लगाने वाली हूं। इस मौत के जिम्मेदार तुमलोग ही हो। लेकिन तभी उनकी गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे साहब ने ड्राइवर को डाटा। साहब गाडी से नीचे उतरे और मेरा हाथ पकड़ कर सड़क के एक किनारे कर दिया। रोता हुआ देखकर पूछे- तुम्हें क्या तकलीफ है? क्यों मरना चाहती हो? पहले मैंने साहब को घूर कर देखी। फिर लगा शायद साक्षात भगवान का दर्शन हो गया है। मैंने उसे पूरी कहानी सुनाई।
साहब: हौसला रखो। सब ठीक होगा। फिर मेरे पति का नाम पूछा। मैं क्या करती। पति का नाम लेना पड़ा। उसने मेरे पति का नाम सुनते ही मुझे फिर से घूर कर देखा। मेरा रोम-रोम सिहर उठा। सोची- कहीं मेरे पति का कोई दुश्मन तो नहीं है, जो बदला लेना चाहता हो। उसने मुझे अपनी गाड़ी में बैठने को बोला। मैं इनकार करने लगी। तब उसने कहा- पैसा चाहिए तो गाड़ी में बैठ जाओ।
दुलारी: मेरे को शक हुआ। लेकिन फिर सोची- जब आज प्रतिज्ञा कर ही लिए हैं की किसी तरह मुझे पैसा चाहिए। फिर क्या सोचना। आज मेरे शरीर से बदबू आने वाली है। यही सोचते हुए की गाड़ी की ओर बढ़ने लगी। मेरे दिल की धड़कन जोरों से धड़क रही थी। साहब बीच-बीच में मुझे घूर कर देख रहे थे। तो जख्म और ताजा हो जा रहा था। तभी एक घर के सामने गाड़ी रुकी।
साहब ने बोला- रुको मैं आ रहा हूं। तुम यहीं बैठो। तथा ड्राइवर को हिदायत दिये की कुछ नहीं करेगा। मैं सोची शायद अकेला खाना चाहता है। क्या करूं। जब सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं तो महिला के दिमाग में यही एक बात खटकती रहती है।
साहब(पैसा लेकर फिर से गाड़ी में बैठ गये): चलते- चलते पूछा- रामलाल किस अस्पताल में……..!
दुलारी: सुधा नर्सिंग होम…………..जी सुधा नर्सिंग होम। दुलारी: साहब लेकिन उनसे मत बोलना कि मैं……………….!
साहब: (बीच में बात को काटते हुए)- चलो जाओ| पहले इलाज तो करवा लो पति का। सुधा नर्सिंग होम पहुंच गए। साहब पूछे- पति कहां है?
दुलारी: सोची, साहब इलाज के बाद सूद सहित वसूलेंगे। मेरे आंखों से मुसलाधार बारिश हो रही थी। एक तरफ खुश थी की रामलाल ठीक हो जायेंगे। वहीं सोच रही थी की रामलाल को अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊंगी। उनको पता चलेगा तो वह क्या सोचेंगे। क्या मुझे माफ करेंगे कि नहीं।
तभी साहब ने हाथ पकड कर मुझे झकझोरा और बोले- कहॉं खो गई हो। अस्पताल के जनरल वार्ड आ गया। ये लो पैसा और जाकर इलाज करवाओ। मैं शाम में फिर मिलने आऊंगा। अभी मैं जल्दी में हूं।
दुलारी: सोची शायद शाम को साथ ले जायेंगे। शाम को मैं थोड़ी साफ सुथरी साडी पहनकर तैयार थी। उस लक्ष्मण रेखा को लांघने के लिए। देर शाम तक इंतजार की, लेकिन वे नहीं आए।
मैं सोची – शायद कल आएंगे।
तभी रामलाल ने पूछा- पैसा कहां से लाई।
दुलारी: जी कोई बडे ने साहब हमें उधार दिए हैं। साहब बोले हैं की वापस कर देना।
रामलाल: धन्य है वो साहब! वैसा साहब नसीब वाले को ही मिलता है। भगवान उन्हें सदा खुश रखे, इसके सिवा हम लोग के पास और कुछ है भी नहीं। मैं ठीक होने के बाद उनसे जरूर मिलूंगा। और जमा करके एक-एक पैसा वापस कर दुंगा।
दुलारी: मैं तो बाट जोह रही थी। ताकि हमारे पति को पता नहीं चले। वरना कोई पति यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकता है। तभी कार अस्पताल के दरवाजे पर रुकी। मै सोची- चलो समय आ गया। थोडी दुर ही बढे थे की- मैं रूक गई।
दुलारी: ये क्या? साहब के साथ में मेम साहब आई थी। साहब: दुलारी, रामलाल कैसा है? तुम कैसी हो? इनसे मिलो- ये हमारी धर्मपत्नी है।
दुलारी: मैं उनकी चरण छुई। और टुकुर-टुकुर देखती रही। मेम साहब: बोली तुम बहुत अच्छी हो दुलारी। तुमने हमारे साहब का दिल जीत लिया। और पैसा चाहिए तो बोलना। दुलारी: मैं कुछ समझ नहीं पायी। सोची मेम साहब भी……………।
साहब(अंदर पहुंच कर): कैसे हो रामलाल ? मुझे पहचाना! शायद तुम मुझे भूल गए हो ! लेकिन मैं तुम्हें नहीं भूला। दुलारी मुझे सब कुछ बता दी है। सच! तेरा नाम सुनते ही हमने समझ लिया था कि हो ना हो या वही रामलाल होगा। और भगवान क शुक्रिया- तुम वही हो। मेरा सौभाग्य है कि मै तुम्हारे कुछ काम आ पाया।
रामलाल: कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। वह उस आदमी को अपने करीब देख कर सिर्फ उसके आंख से आंसू निकल रहा था। मुझे माफ कर दीजिए साहब। सच में आप महान हैं। रामलाल(खुशी में ऑंसू पोछते हुए): दुलारी, ये वही साहब हैं, जिनका बटुवा मैंने……………………..।
दुलारी: हे भगवान! मैं कितनी गंदी हूं। ना जाने मेरे मन में क्या-क्या ख्याल आ रहे थे। इस भगवान को मैंने कितना गलत समझा। साहब मुझे माफ कर दो। मेम साहब आप भी मुझे माफ कर दो।
साहब: क्या करोगी? कोई भी औरत यही सोचेगी।
रामलाल ठीक हो गया। रामलाल ने भगवान, मेम-साहब, दुलारी और डॉक्टर को धन्यावाद किया। आज हमलोग खुशी की जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। क्योंकि साहब की कृपा से- हमें रहने के लिए एक खोली, जिंदगी जीने के लिए पाव भाजी का ठेला लगवा दिये। अब दोनों पति-पत्नी साहब के घर के आउट हाउस में ही रहते हैं। साहब का भी काम कर देते हैं। और पाव भाजी का ठेला भी सही से चला रहे हैं। हमारा बच्चा श्यामलाल का पढाई का भी खर्चा साहब ही देते हैं। सच ऐसा साहब जो हम भिखारी-भिखारिन को सहारा दिया वरना ना जाने कब , कहां किस स्टेशन पर किसी का शिकार हो रहे होते। भाई यही तो हमलोगों की कहानी है……|
–END–