Hindi short story -Sometimes we have difficult situations in our life. In my opinion, that time we should use our intelligence and face those problems,
जब मुझे पान ,बीड़ी , सिगरेट की दूकान में बिठा दिया गया
में मैंने मेट्रिक की परीक्षा दी. मार्च के महीने में परीक्षा देने के बाद मैं खाली बैठा हुआ था. मेरे चाचा गौरी शंकर जी की आँखों में मेरा बैठना खटकने लगा तो उसने मुझे अपनी पान, बीड़ी, सिगरेट की दूकान में बैठाना मुनासिब समझा. मेरी माँ से बड़े ही प्यार से बोला,
” दुर्गा परीक्षा देकर बेकार बैठा हुआ है घर पर , क्यों न मेरे साथ दूकान में बैठे , मेरी मदद हो जायेगी और वह कुछ सीखेगा भी. दिन भर मुहल्ले के बिगडेल लड़कों के साथ फालतू में इधर उधर बेमतलब का घूमते रहता है, कम से कम उनकी सोहबत में आकर बर्बाद होने से तो बचेगा.”
मेरी माँ छल कपट से कोसों दूर रहती थी. मेरी माँ ने मुझे बुलाकर कहा,” कल से चाचा के साथ दूकान पर बैठा करो. उन्हें मदद मिल जायेगी. तुम भी कुछ न कुछ सीखोगे ही. ”
मैंने दो टूक जवाब दिया,” नहीं बैठूँगा, नहीं बैठूँगा. ”
“क्यों नहीं बैठोगे? कोई तो वजह होगी.” माँ ने सवाल किया.
” इसलिए कि वे मुझे बैठाकर एक दो घंटे के लिए जाते हैं और दिन- दिन भर गायब रहते हैं. शाम को सूर्यास्त होने पर मुहँ लटकाए लौटते हैं . पूछने पर बगले झाँकने लगते हैं. लालजी चाचा ( जो दूकान पर ठीके पर बीड़ी बांधने का काम किया करते थे.) बतला रहे थे कि चाचा बतासी बाँध में जुआ खेलने जाता है, दिन – दिन भर वहीं रहता है तबतक जबतक दिन नहीं ढल जाता है. विश्वास न हो तो पूछ सकती हैं उनसे.” – मैंने अपनी बात रख दी.
यही नहीं मैं शुक्रवार और मंगलवार को अक्सरां स्कूल जाने के क्रम में उनकी दूकान पर एक आना मांगने जाया करता था. मोर्निंग स्कूल के दिनों में मुझे साथियों के साथ पूनु मैरा की दूकान में टिफिन में घुघनी – मुढ़ी खानी रहती थी. मंगल और शुक्रवार को हाटतोला में हटिया लगती थी. मार्च के महीने में बूटझंगडी बिकने आती थी. दो पैसे में एक झाड़. मैं और मेरा मित्र मथुरा स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद साथ-साथ घर आते थे. मैं साहस बटोर कर चाचा जी से दो पैसे मांगने चले जाते थे. मथुरा की माँ रईस खानदान की बेटी थी , इसलिए वह माँ से पैसे लेकर आता था. मेरी माँ का हाथ खाली ही रहता था क्योंकि पिता जी का देहांत कच्ची उम्र में ही गया था और माँ को परिवार में कोई पैसे देनेवाला नही था.
कभी- कभी मेरे मामा जी , जगदेव सिंह या भगवान सिंह माँ से मिलने आते थे तो दस – बीस रूपये दे देते थे. मेरी माँ चार भईयों में एकलौती बहन थी और मेरे मामालोग की बहुत ही दुलारी थी. पिता जी का असमय देहांत हो जाने के बाद और अधिक दुलारी हो गयी थी. इन पैसों को माँ हमारे कपड़ों – लत्तों पर खर्च कर देती थी. अपना एक ब्लाऊज भी नहीं सिलवाती थी. पेबंद पर पेबंद लगा कर पहनती थी. मैं माँ को इस हालत में देखकर कहने से बाज नहीं आता था कि जब मैं कमाने लगूंगा और मेरे पास पैसे होंगे तो आप के लिए एक थान कपडे खरीद दूंगा. मैंने अपना वचन गर्व के साथ निभाया जब मेरी नौकरी और टिउसन से हज़ार रूपये महीने आने लगे. एक थान ( बीस गज कपडे ) देख कर दंग रह गयी माँ .
“ मैं बहस नहीं करना चाहती. तुम्हारे चाचा हैं , बड़े हैं , जब कहते हैं तो तुम्हें उनकी बात माननी चाहिए.”- माँ ने कहा.
मैंने दूसरे दिन से दूकान जाने लगा. उन्हें पेचिस की क्रोनिक बीमारी थी. खान -पान में वे लापरवाह थे. परहेज तो करते ही नहीं थे. फलस्वरूप घंटे दो घंटे में उन्हें शौच के लिए तालाब जाना पड़ता था. कभी तो तुरंत आ जाते थे और कभी इतनी देर करते थे कि मेरा मन घबड़ाने लगता था. दोपहर को कभी खाने भी नहीं आ पाता था. आलू चॉप व सिंघाडा ही खा कर संतोष कर लेता था. नथुनी चाचा की चाय पकौड़ी की दूकान बिलकुल बगल में थी. चाचा भी यहीं नास्ता – पानी करता था जब कि इन चीजों का खाना उनके लिए सख्त मना था. मैं भी लेट होने पर आलू चोप एवं पकौड़ी खा लिया करता था . हमें पैसे नहीं देने पड़ते थे.
नथुनी चाचा एवं मेरे चाचा में अंडरस्टेंडिंग थी कि वे एक दूसरे से पैसे नहीं लेंगे. नथुनी चाचा दिनभर बकरी की तरह पान चबाते रहते थे जो उन्हें मुफ्त मिलती थी. बीच – बीच में बीडी- सिगरेट भी लेते थे. कभी तो इतनी खीज होती थी कि दूकान बंदकर घर भाग जाऊं . भूख बर्दास्त न होने पर और चाचा जी का दोपहर तक तालाब से न लौटने पर मैं दूकान बंद करके घर भाग जाता था. चाचा बड़े ही चालक किस्म के व्यक्ति थे और बड़ी चालिकी से काम लेते थे. दादी मुझे देखकर पूछ बैठती थी ,” बड़ा सबेरे ही चले आये आज ?”
मैं खीज कर जवाब भी उसी लहजे में दे देता था. मुझे सच बात बोलने में जरा सा भी संकोच नहीं होता था. दादी चौखट पर बैठी देर रात तक उनका इन्तजार करती रहती. मेरी माँ खाने पर भी बुलाती थी तो वह ,” चलो आ रहें हैं – कहकर टाल देती थी. मेरी चाची का वर्ताव चाचा के प्रति ठीक नहीं था. वह उनके साथ बड़े ही रूखेपन से पेश आती थी. चाचा का जुआ खेलना, शराब पीकर घर देर रात तक आना , वचाव के लिए सफ़ेद झूठ बोलना – किसी बात को एक कान से सुनना और दूसरे से निकाल देना – ऐसे कुछ कारण थे जेनुइन जिससे चाची हमेशा चाचा से खफा रहती थी. चाचा चाची में बहुधा किसी न किसी बात को लेकर तू -तू मैं हुआ करती थी. चाची में भी अनेक अवगुण थे , लेकिन वह सारा दोष चाचा के सर पर ही मढ़ देती थी.
मेरी समझ में एक बात बिलकुल स्पष्ट थी कि पत्नी की बेरुखी के कारण ही पति रास्ता से बे रास्ता हो जाता है. जब से चाची गौना करके मेरे घर आयी तब से चाचा के साथ उसने अच्छा व्यवहार नहीं किया. चाचा को घर से शनैः – शनैः उचाट होता गया . उनकी सेहत खराब होने एवं बूरी संगति में पड़ने की एक यह भी वजह थी. उन्हें ताजिंदगी कभी भी पत्नी – सुख नहीं मिला. वे समय से पहले ही दुनिया छोड़ कर चले गये. मैं इतनी कम उम्र में सब कुछ समझने – बुझने लगा था. दादी का चाचा के प्रति ज्यादा मोह था. पिता जी के असमय ( मात्र सत्ताईस साल की उम्र में ) स्वर्गवास हो जाने से दादी का एकलोता लड़का वही रह गया था. दादी चाचा की बूरी लत से मुहँ फेर लेती थी. जानकर भी अनजान बन जाती थी. नतीजा चाचा का मन बढ़ता चला गया दिनानुदिन दो-तीन महीने तक मैं पान की दूकान में इंगेज रहा.
मेरी मेट्रिक की परीक्षा का रिजल्ट प्रकाशित हुआ और मैं सेकण्ड डीविजन में उत्तीर्ण हो गया. मैं परिवार में पहला आदमी होने का शौभाग्य प्राप्त किया जिसने मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की हो. घर में खुशी का माहौल था. मैं आगे पढ़ने के बारे में सोच रहा था . मैंने दूकान जाना भी छोड़ दिया था. चाचा नाराज थे इस बात से. वे एक दिन आये और सब के सामने एलानिया आवाज में बोले,” दुर्गा अब नहीं पढ़ेगा, बनिया का बच्चा है, दूकान में बैठेगा अब से मेरे साथ.”
दादी भी चाचा की हाँ में हाँ मिलाई. इस समय तक वक्त की थपेडों की मार से मैं व्यस्क हो गया था . भला बूरा समझने लगा था. वाणी मंदिर पुस्तकालय से नित्य विभिन्न विषयों की किताबें लाकर पढ़ा करता था. नियम कानून के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हो गई थी. मैंने साफ शब्दों में घोषणा कर दी.
” देखता हूँ मुझसे कौन अब पान बेचवाता है., संपत्ति में हमारा आधा का शेअर है. बंटवारा किया जाय. हमलोग अलग रहेंगे, फिर पढेंगे. देखतें हैं मुझे पढ़ने से कौन रोकता है.”
दादाजी एवं पिता जी की अर्जित अकूत सम्पति थी. दादी अमीर बाप की बेटी थी. वह नहीं चाहती थी कि सम्पति का बंटवारा हो. मैंने दौड़कर दादी के कमर से लटकती हुई आयरन – चेस्ट की चाभी छीन ली. मैं रूपये व जेवरात आदि चेस्ट से निकालने आगे बढ़ा ही था कि दादी पीछे से मुझे पकड़ ली और बोली,” बाबू , ये सब क्या करते हो? जग हंसाई कराओगे क्या? गौरी शंकरा के बोलने से क्या होगा ? हम तुमको पढायेंगे. हम पैसा देंगे. चाभी दे दो. ”
मैंने चाभी लौटा दी. मामला शांत होता हुआ नज़र आया. चाचा को तो काठ मार गया था. उन्हें मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. माँ को तो जैसे सांप सूंघ गया था . उसने भी मेरा ऐसा रौद्र रूप कभी नहीं देखी था. वह हक्का- बक्का रह गई जब मुझे जबरन दादी के कमर से चाभी छिनते हुए देखी. दादी नहीं चाहती थी कि संपत्ति का बंटवारा हो. उस समय माँ की उम्र महज पच्चीस साल थी. वह परिवार से अलग रहकर आलोचना का पात्र नहीं बनाना चाहती थी. उनका एक ही उदेश्य था गम सहकर अपने बच्चो का पालन पोषण करना. वह इस मकसद में सफल भी हुयी.
सबसे बूरा जो हुआ वह यार था कि चाचा और दादी मिलकर , मन को विश्वास में लेकर लाखों की जमीन जायदाद हम तीन भईयों के व्यस्क होने के पहले कौड़ी के दाम में बेच डाले . घर में जो सोने चांदी , हीरे जवारत थे , वे एक दिन में झरिया के बाज़ार में बेच डाले. और वहां से एक ट्रक रासन दुकानदारी के लिए लेते आये. मैं जिस रूम में टिउसन करता था , वहां से मुझे हटा दिया गया. दुसरे दिन से ही गोलदारी दूकान शुरू हो गयी. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चली. वजह थी कि चाचा जी दूकान न समय पर खोलते थे न ही बंद करते थे. दूसरी वजह उनकी जुए की लत गयी नहीं थी. जुए में उधर लेकर भी मोटी रक़म हार जाते थे और उनके शागिर्द पाव फटते वसूलने धमक पड़ते थे. नगद रक़म मिली तो वाह – वाह , न तो बोरे – बोरे , टिन- टिन चावल दाल , तेल-घी इत्यादे लेकर चलते बनते थे.
मेरी माँ मजबूर व विवश थी. वह साहसी बहुत थी ,विरोध भी कर सकती थी, लेकिन हमारे मासूम चेहरे को देखकर सब कुछ सहन कर लेती थी. दूसरी वजह मेरी माँ नहीं चाहती थी कि बच्चे बड़े होने के पहले परिवार दो फाड़ हो जाय और जग हँसाई बेमतलब का हो. इसलिए बात आयी गई हो गई. मैंने आर. एस. पी. कालेज झरिया में प्री-काम में दाखिला ले लिया और लगातार चार वर्षों तक पढ़ा. १९६५ में वाणिज्य में स्नातक हो कर निकला. यहाँ भी मुझे परिवार का पहला आदमी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसने स्नातक उत्तीर्ण किया हो.
कभी-कभी आदमी की जिंदगी में विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. मेरे अनुसार सूझ – बूझ के साथ ऐसी परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करनी चाहिए और मैंने वैसा ही किया एवं अपने मिशन में सफल हुआ.
लिखा गया एक बैठक में ९ पी. एम. से २ ए.एम. तक.
दिनांक – २१- ०७ – २०१२
लेखक – दुर्गा प्रसाद.
नोट : ब्लॉग में दिनांक १७ मार्च २०१३ को भेजा गया.
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